Tuesday 23 July 2013

1 घंटे की मुलाकात और डॉक्टर से कैप्टन बन गईं लक्ष्मी सहगल

एक प्रयास ---------


Freedom fighter Captain Lakshmi Sahgal
1 घंटे की मुलाकात और डॉक्टर से कैप्टन बन गईं लक्ष्मी सहगल
कैप्टन डॉ. लक्ष्मी सहगल महान स्वतंत्रता सेनानी और आजाद हिंद फौज की अधिकारी थीं। 
वह आजाद हिंद सरकार में महिला मामलों की मंत्री भी रहीं। उनकी  पुण्यतिथि पर कुछ यूं पेश हैं उन्हें श्रद्धांजलि..
जीवन परिचय:
भारत की आजादी में अहम भूमिका अदा करने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सुभाष चंद्र बोस की सहयोगी रहीं कैप्टन लक्ष्मी सहगल का जन्म 24 अक्टूबर, 1914 को मद्रास (अब चेन्नई) में हुआ था। शादी से पहले उनका नाम लक्ष्मी स्वामीनाथन था। पिता का नाम डॉ. एस. स्वामीनाथन और माता का नाम एवी अमुक्कुट्टी (अम्मू) था। पिता मद्रास उच्च न्यायालय के जाने माने वकील थे। माता अम्मू स्वामीनाथन एक समाजसेवी और केरल के एक जाने-माने स्वतंत्रता सेनानी परिवार से थीं, जिन्होंने आजादी के आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। यह एक तमिल परंपरावादी परिवार था। लक्ष्मी सहगल शुरुआती दिनों से ही भावुक और दूसरों की मदद करने वाली रहीं।
शिक्षा और आरंभिक जीवन:
कैप्टन लक्ष्मी पढ़ाई में कुशल थीं। वर्ष 1930 में पिता के देहावसान का साहसपूर्वक सामना करते हुए 1932 में लक्ष्मी ने विज्ञान में स्नातक परीक्षा पास की। कैप्टन सहगल शुरू से ही बीमार गरीबों को इलाज के लिए परेशान देखकर दुखी हो जाती थीं। इसी के मद्देनजर उन्होंने गरीबों की सेवा के लिए चिकित्सा पेशा चुना और 1938 में मद्रास मेडिकल कालेज से एमबीबीएस की डिग्री हासिल की। उसके बाद उन्होंने डिप्लोमा इन गाइनिकोलॉजी भी किया और अगले वर्ष 1939 में वह महिला रोग विशेषज्ञ बनीं। पढ़ाई समाप्त करने के दो वर्ष बाद लक्ष्मी को विदेश जाने का अवसर मिला और वह 1940 में सिंगापुर चली गई। जहां उन्होंने गरीब भारतीयों और मजदूरों (माइग्रेंटस लेबर) के लिए एक चिकित्सा शिविर लगाया और उनका इलाज किया।
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान:
सिंगापुर में उन्होंने न केवल भारत से आए अप्रवासी मजदूरों के लिए नि:शुल्क चिकित्सालय खोला, बल्कि भारत स्वतंत्रता संघ की सक्रिय सदस्या भी बनीं। वर्ष 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब अंग्रेजों ने सिंगापुर को जापानियों को समर्पित कर दिया, तब उन्होंने घायल युद्धबंदियों के लिए काफी काम किया। उसी समय ब्रिटिश सेना के बहुत से भारतीय सैनिकों के मन में अपने देश की स्वतंत्रता के लिए काम करने का विचार उठ रहा था।
नेताजी से मुलाकात:
विदेश में मजदूरों की हालत और उनके ऊपर हो रहे जुल्मों को देखकर उनका दिल भर आया। उन्होंने निश्चय किया कि वह अपने देश की आजादी के लिए कुछ करेंगी। लक्ष्मी के दिल में आजादी की अलख जग चुकी थी, इसी दौरान देश की आजादी की मशाल लिए नेता जी सुभाष चंद्र बोस दो जुलाई, 1943 को सिंगापुर आए तो डॉ. लक्ष्मी भी उनके विचारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकीं और अंतत: करीब एक घंटे की मुलाकात के बीच लक्ष्मी ने यह इच्छा जता दी कि वह उनके साथ भारत की आजादी की लड़ाई में उतरना चाहती हैं। लक्ष्मी के भीतर आजादी का जज्बा देखने के बाद नेताजी ने उनके नेतृत्व में रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट बनाने की घोषणा कर दी, जिसमें वह वीर नारियां शामिल की गई जो देश के लिए अपनी जान दे सकती थीं। 22 अक्टूबर, 1943 में डॉ. लक्ष्मी ने रानी झांसी रेजीमेंट में कैप्टन पद पर कार्यभार संभाला। अपने साहस और अद्भुत कार्य की बदौलत बाद में उन्हें कर्नल का पद भी मिला, जो एशिया में किसी महिला को पहली बार मिला था। लेकिन लोगों ने उन्हें कैप्टन लक्ष्मी के रूप में ही याद रखा। डॉ. लक्ष्मी अस्थाई आजाद हिंद सरकार की कैबिनेट में पहली महिला सदस्य बनीं। वह आजाद हिंद फौज की अधिकारी तथा आाजाद हिंद सरकार में महिला मामलों की मंत्री थीं।
आजाद हिंद फौज में शामिल:
राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित लक्ष्मी स्वामीनाथन डॉक्टरी पेशे से निकलकर आजाद हिंद फौज में शामिल हो गई। अब लक्ष्मी सिर्फ डॉक्टर ही नहीं, बल्कि कैप्टन लक्ष्मी के नाम से भी लोगों के बीच जानी जाने लगीं। उनके नेतृत्व में आजाद हिंद फौज की महिला बटालियन रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट में कई जगहों पर अंग्रेजों से मोर्चा लिया और अंग्रेजों को बता दिया कि देश की नारियां चूड़ियां तो पहनती हैं, लेकिन समय आने पर वह बंदूक भी उठा सकती हैं और उनका निशाना पुरुषों की तुलना में कम नहीं होता।
तैयार की 500 महिलाओं की फौज:
सुभाष चंद्र बोस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सेना में रहते हुए उन्होंने कई सराहनीय काम किए। उनको बेहद मुश्किल जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उनके कंधों पर जिम्मेदारी थी फौज में महिलाओं को भर्ती होने के लिए प्रेरित करना और उन्हें फौज में भर्ती कराना। लक्ष्मी ने इस जिम्मेदारी को बखूबी अंजाम तक पहुंचाया। जिस जमाने में औरतों का घर से निकालना भी जुर्म समझा जाता था, उस समय उन्होंने 500 महिलाओं की एक फौज तैयार की जो एशिया में अपनी तरह की पहली विंग थी।
निधन:
कैप्टन डॉक्टर लक्ष्मी सहगल का निधन 98 वर्ष की आयु में 23 जुलाई, 2012 की सुबह 11.20 बजे कानपुर के हैलेट अस्पताल में हुआ था। उन्हें 19 जुलाई को दिल का दौरा पड़ने के बाद भर्ती कराया गया था, जहां उन्हें बाद में ब्रेन हैमरेज हुआ। लेकिन दो दिन बाद ही वह कोमा में चली गई। करीब पांच दिन तक जिंदगी और मौत से जूझने के बाद आखिरकार कैप्टन सहगल अपनी अंतिम जंग हार गई। स्वतंत्रता सेनानी, डॉक्टर, सांसद, समाजसेवी के रूप में यह देश उन्हें सदैव याद रखेगा। पिछले कई साल से वह कानपुर के अपने घर में बीमारों का इलाज करती रही थीं। उनकी इच्छानुसार उनका मृत शरीर कानपुर मेडिकल कॉलेज को दान कर दिया गया था। अत: उनकी इच्छा के मुताबिक, उनका अंतिम संस्कार नहीं होगा। जीवन भर गरीबों और मजदूरों के लिए संघर्ष करती रहीं लक्ष्मी सहगल की मौत के समय उनकी पुत्री सुभाषिनी अली उनके साथ ही थीं।

Sunday 21 July 2013

पिएँ पसीने से बना पीने वाला पानी?


पसीना से पानी बनाने वाली मशीन
ये मशीन यूनिसेफ़ के एक अभियान के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए बनाई गई है







स्वीडन में एक ऐसी मशीन का इस्तेमाल हो रहा है जो पसीने से भीगे कपड़ों से नमी लेकर उसे पीने के पानी में तब्दील कर देती है.
ये उपकरण कपड़े को घुमाकर और गर्म करके उसमें से पसीना निकाल देता है, फिर उससे निकले वाष्प को एक ख़ास पतली झिल्ली से गुज़ारा जाता है. उस झिल्ली से सिर्फ़ पानी के ही अणु गुज़र सकते हैं.


ये उपकरण कपड़े को घुमाकर और गर्म करके उसमें से पसीना निकाल देता है, फिर उससे निकले वाष्प को एक ख़ास पतली झिल्ली से गुज़ारा जाता है. उस झिल्ली से सिर्फ़ पानी के ही अणु गुज़र सकते हैं.
इसे बनाने वालों के मुताबिक़ सोमवार को इस मशीन के लॉन्च के बाद से गोथेनबर्ग में लगभग 1000 लोग दूसरों का पसीना पी चुके हैं.
उन्होंने कहा है कि उस मशीन से बनने वाला पानी स्थानीय नल के पानी से ज़्यादा साफ़ है.

चाहिए ऐसा दंपत्ति जो मंगल का एकांत झेल सके

एक प्रयास ---------

मंगल

एक करोड़पति व्यक्ति के नेतृत्व में एक दल प्रयोग के लिए एक ऐसे अधेड़ दंपत्ति की तलाश कर रहा है जो मंगल ग्रह तक जा कर वापस आ सके.
इस दल का नेतृत्व पूर्व अंतरिक्ष पर्यटक रह चुके डेनिस टीटो कर रहे हैं. इंस्पिरेशन मार्स फाउंडेशन नाम के संस्थान का यह अभियान पूरी तरह से 'निजी पूँजी' से चलाया जाएगा. इनकी योजना है कि करीब क्लिक करेंडेढ़ साल चलने वाला यह अभियान जनवरी 2018 तक आरंभ हो जाए
इस अभियान के लिए जनवरी 2018 को इसलिए चुना गया है क्योंकि उस वक़्त पृथ्वी और मंगल अपनी अपनी कक्षाओं में सर्वाधिक पास होंगे.

क्यों चाहिए अधेड़

जो लोग इस अभियान में शामिल हैं उनमे से जेन पॉइंटर हैं जिन्होंने दो साल एक चारों तरफ से बंद संसार से कटे हुए वातावरण में बिताए थे.
जेन पॉइंटर ने बीबीसी से बात करते हुए बताया कि इस अभियान के लिए एक अधेड़ दंपत्ति की खोज इसलिए की जा रही है क्यों कि किसी पुराने दंपत्ति में ही इतना सामंजस्य होता है जितना कि दो साल तक अंतरिक्ष में दीन दुनिया से कटे रहते हुए एक साथ रहने के लिए चाहिए .
जेन पॉइंटर ने कहा " मैं अपने अनुभव से कह सकती हूँ कि अगर आपके पास कोई ऐसा है जिसके ऊपर आप पूरी तरह से भरोसा कर सकते हैं तो यह सामान्य बात नहीं है."
जेन पॉइंटर जिन्होंने अपने साथ प्रयोग में शामिल एक आदमी से बाद में विवाह भी कर लिया था वो कहती हैं कि जिस तरह की परिस्थितियों का सामना मंगल जाने वाले दंपत्ति को करना होगा वो बहुत ही चुनौतीपूर्ण होंगी. वो जोर देकर कहती हैं "इस काम के लिए ऐसे दंपत्ति की खोज की जा रही है जो मुश्किलों का सामना करते हुए भी एकदूसरे के साथ खुश रहें."
योजना के अनुसार एक अधेड़ दंपत्ति का चयन किया जायेगा जिनकी सेहत और प्रजनन क्षमता पर रेडिएशन का ज़्यादा प्रभाव नहीं पड़े.

कैसे होगा ?


जिन लोगों का चयन मंगल ग्रह जाने के लिए होगा उन्हें कड़ी ट्रेनिंग दी जाएगी और 
यात्रा के दौरान धरती पर मौजूद केंद्र से उन्हें पूरे समय मनोवैज्ञानिक सहायता भी उपलब्ध कराई जाएगी.
अंतरिक्ष इतिहास के विशेषज्ञ और लिंकन विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर क्रिस्टोफर रिले मानते हैं कि किसी दंपत्ति को भेजने का विचार अच्छा है. प्रोफ़ेसर रिले कहते हैं ' कोई ऐसा जोड़ा जिसके बच्चे हो चुके हों क्लिक करेंमंगलकी यात्रा पर जाए तो बेहतर है क्योंकि उनकी प्रजनन क्षमता पर इस यात्रा का बड़ा प्रभाव होगा."
इस अभियान के तहत मंगल ग्रह तक जा कर वहां नीचे उतरे बिना वापस आना होगा इसकी वजह से अभियान की कीमत में जबरदस्त कमी आ जाएगी.
इस अभियान के लिए जनवरी 2018 को इसलिए चुना गया है क्योंकि उस वक़्त पृथ्वी और मंगल अपनी अपनी कक्षाओं में सर्वाधिक पास होंगे.
इन दोनों ग्रहों की नज़दीकी की वजह से यह यात्रा डेढ़ साल में निपट जायेगी. अगर यह समय बीत जाता है तो इस यात्रा में दो से तीन साल तक का समय लग सकता है.

विशेषज्ञों की राय

ब्रिटिश नेशनल स्पेस सेंटर के अनु ओझा भी मानते हैं कि मंगल तक जाने और आने के विमान मौजूद है.
विमान के अन्दर यात्रीओं को बेहद कम में अपना गुज़ारा करना होगा . इस विमान में दो यात्रियों के लिए पांच दिन के भोजन का वजन करीब 1,360 किलो होगा. इसके अलावा इस विमान पर 28 किलोग्राम टॉयलेट पेपर भी होंगे.
ओझा के अनुसार अगर किसी को मंगल भेजना है तो इसके लिए विमान में कुछ तकनीकी सुधार करने होंगे मसलन पेशाब को शोधित कर पानी बनाने और रेडिएशन के प्रभावों को कम करने के क्षेत्र में.
डेनिस टीटो
इस अभियान के लिए डेनिस टीटो ने आरंभिक पूँजी लगाई है लेकिन इसके लिए कहीं और पैसे की ज़रुरत है.
ओझा कहते हैं "जब तक कुछ अरबपति एक या दो अरब डॉलर इस अभियान पर खर्च कर भूल जाने के लिए नहीं तैयार होते यह अभियान हो ही नहीं सकता 














क्यूरियोसिटी रोवर

एक प्रयास ---------

क्लिक करेंक्यूरियोसिटी रोवर रोबोट पिछले साल 6 अगस्त को मंगल पर उतरा था.

Sunday 14 July 2013

उत्तराखंड: अब बद्रीनाथ के ऊपर बन रही है खतरे की झील

एक प्रयास ---------
जलप्रलय और तबाही के बाद अब बद्रीनाथ के पास अलकनंदा नदी में एक ऐसी झील बन गई है जो खतरे की घंटी साबित हो सकती है.

भूस्खलन से भग्याणू ग्लेशियर से काफी अधिक मलबा बहकर अलकनंदा में आया है, जिससे एक हिस्से में उसका प्रवाह रुक गया है और वहां झील बन गई है.
झील का दायरा लगभग 2553 वर्ग मीटर है.
माणा इस इलाके में भारत-चीन सीमा से पहले आखिरी गांव है और हाल में आई आपदा में भी यहां नुकसान हुआ है.
झील बनने और उसके टूटने की आशंका ने अलकनंदा के किनारे रहने वाले हजारों लोगों को दहशत से भर दिया है.

टेलीग्राम: 1857 का विद्रोह 'दबाने' वाले की मौत

एक प्रयास ---------
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तार जैसे कारगर हथियार की वजह से अंग्रेज़ों को 1857 के विद्रोह को दबाने में काफ़ी मदद मिली.
जब टेलीग्राम की सुविधा शुरु हुई थी तो भारत में लोगों को इसकी अहमियत पता नहीं थी, लेकिन 1857 के ग़दर के दौरान और उसके बाद से लेकर आज तक तार सामाजिक ताने-बाने का हिस्सा रहा है.
क्लिक करेंतार ने लोगों को जोड़े भी रखा और यह आतंक का भी पर्याय बना रहा.शुरुआती दिनों में ईस्ट इंडिया कंपनी ने तार का इस्तेमाल अपने सिपाहियों को ख़बर करने के लिए किया. फिर मौत की ख़बर देने के लिए इनका इस्तेमाल होता रहा. लंबे वक़्त तक ये तार और बैरंग चिट्ठियां आने का मतलब यही आतंक था.
भारतीय डाक-तार सेवा के इतिहास पर शोध करने वाले अरविंद कुमार सिंह बताते हैं, ‘1857 के विद्रोह के वक़्त अंग्रेज़ों के टेलीग्राफ़ विभाग की असल परीक्षा हुई, जब विद्रोहियों ने अंग्रेज़ों को जगह-जगह मात देनी शुरू कर दी थी. 
अंग्रेज़ों के लिए तार ऐसा सहारा था जिसके ज़रिए वो सेना की मौजूदगी, विद्रोह की ख़बरें, रसद की सूचनाएं और अपनी व्यूहरचना सैकड़ों मील दूर बैठे अपने कमांडरों के साथ साझा कर सकते थे.’

हिटलिस्ट में थे टेलीग्राफ़ ऑफ़िस-----

कुछ इतिहासकार मानते हैं कि तार की वजह से बग़ावत दबाने में अंग्रेज़ों को काफ़ी मदद मिली.
 एक तरफ़ विद्रोहियों के पास ख़बरें भेजने के लिए हरकारे थे, 
दूसरी तरफ़ अंग्रेजों के पास बंदूक़ों के अलावा सबसे बड़ा हथियार था- तार, 
जो मिनटों में सैकड़ों मील की दूरी तय करता था. इस वजह से अंग्रेज़ों का टेलीग्राफ़ विभाग बाग़ियों की हिट लिस्ट में आ गया

‘रेल से पहले आया था तार’---------------

1849 तक भारत में एक किलोमीटर रेलवे लाइन तक नहीं बिछी थी. 1857 के बाद रेलवे लाइन बिछाने पर ब्रिटिश सरकार ने पूरी तरह ध्यान देना शुरू किया. इसके बाद 1853 में पहली बार बंबई (मौजूदा मुंबई) से ठाणे तक पहली ट्रेन चली.
सन 1865 के बाद देश में लंबी दूरियों को रेल से जोड़ना शुरू किया गया लेकिन तार उससे पहले ही अपना काम शुरू कर चुका था.
अरविंद कुमार सिंह कहते हैं, 'भारत में रेलों के विस्तार से पहले ही तार का आगमन हो चुका था. इसने उस वक़्त समाज को नज़दीक किया और उसके एकीकरण का काम किया. इसके अलावा इसका सबसे बड़ा फ़ायदा अंग्रेज़ों को अपना नागरिक और सैन्य प्रशासन मज़बूत करने में मिला.'
ख़बरें 10 दिन नहीं, 10 मिनट में पहुंचीं’--------
मगर तार के इस्तेमाल के बाद उन्हें उसी दिन छापना मुमकिन हो पाया. इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने अख़बारों को ख़ास किस्म के कार्ड मुहैया कराए थे.भारतीय मीडिया के लिए तार एक वरदान ही था. 
भारत में जब अख़बारों की शुरुआत हुई तो उस वक़्त देश के किसी हिस्से में होने वाली घटना की ख़बरें एक हफ़्ते या 10 दिन बाद तक अख़बारों में जगह हासिल कर पाया करती थीं.

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‘1882 में इनलैंड प्रेस टेलीग्राम क्रैडिट कार्ड शुरू हुए. इनसे छोटे-बड़े सभी अख़बारों को काफ़ी मदद मिली. संवाददाता मुफ़्त में अपनी ख़बरें तार के ज़रिए भेज सकते थे. 
तार विभाग में प्रेस के लिए कमरे बनाए गए. इसने ख़बरों को लोगों तक जल्द से जल्द पहुंचाने में योगदान दिया. यह क्रांतिकारी हथियार था.’
रेडियो को भी समाचार टेलीग्राम से मिलते थे. तब ख़बरों के प्रति ललक पैदा हुई. मगर इसका उलटा असर भी पड़ा.
अरविंद कुमार सिंह ने बताया, "तार की वजह से ही अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ ख़बरें भी तेज़ी से अख़बारों के पन्नों पर आने लगीं. यह बात भी कही गई कि ये सुविधा बंद कर दी जाए.
 मद्रास कूरियर अख़बार पर सरकार ने बंदिशें लगाने की कोशिश भी की, लेकिन बंगाल असेंबली की मीटिंग में इसका जमकर विरोध हुआ और इसे देखते हुए इनलैंड टेलीग्राम पर रोक नहीं लगाई जा सकी."
भारत में तार अब इतिहास का हिस्सा बनने जा रहा है. हो सकता है कि ईमेल, मोबाइल फ़ोन और इंटरनेट मैसेंजर की दुनिया में पली-बढ़ी पीढ़ी इसके लंबे इतिहास और अहमियत को भूल ही जाए.



  • टेलीग्राम 162 साल बूढ़ा होकर मर रहा है. ब्रिटिश भारत के इतिहास के तार, तार से जुड़े हैं. इनमें दर्ज है बग़ावत, मुल्क़ के हक़ में हुए फ़ैसले, अंग्रेज़ी महत्वाकांक्षाएं और ख़्वाब, कुचक्र और ख़ून से सनी कहानियां और आज़ाद हिंदुस्तान की तमन्नाएं.जाने योग्य नहीं है.

Monday 1 July 2013

नासा ने 25 दिन पहले दे दिए थे तबाही के संकेत


काश! अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के 25 दिन पहले जारी किए गए सेटेलाइट चित्रों के संकेत भांप लिया जाता तो केदारघाटी में तबाही के तूफान को थामा जा सकता था। 
नासा से जारी चित्रों से साफ हो रहा है कि किस तरह केदारनाथ के ऊपर मौजूद चूराबारी व कंपेनियन ग्लेशियर की कच्ची बर्फ सामान्य से अधिक मात्रा में पानी बनकर रिसने लगी थी।
नासा ने लैंडसेट-8 सेटेलाइट से हादसे से पहले 22 मई को केदारनाथ क्षेत्र के चित्र लिए। जिसमें पता चला कि ग्लेशियर के अल्पाइन जोन से लगे भाग की बर्फ कम होती जा रही है। विशेषज्ञों के मुताबिक यह तभी होता है जब ग्लेशियर की कच्ची बर्फ के पिघलने व जमने का अनुपात गड़बड़ा जाता है। 
नासा की तस्वीरों के अनुसार इसी वजह से करीब 25 दिन पहले से ही केदारनाथ घाटी में ग्लेशियर से निकलने वाले पानी का बहाव तेज होने लगा था। 
यदि तंत्र तभी सक्रिय हो जाता, तो हादसा होने से पहले ही उचित आपदा प्रबंधन किए जा सकते थे। पर अफसोस कि ऐसा हो नहीं सका।
इन चित्रों का अध्ययन करते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ की दुरहम यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट ऑफ जियोग्राफी के प्रो. दवे पेटले ने भी एक रिपोर्ट जारी की है। 
रिपोर्ट के मुताबिक गर्मियों के शुरुआती महीनों में इस तरह ग्लेशियर से बर्फ पिघलने की स्थिति खतरे का संकेत थी, फिर भी इसे नजरंदाज किया जा सकता था, यदि भारत में मानसून करीब 10 दिन पहले नहीं आता। 
बाकी का काम 14 से 16 जून के बीच हुई जबरदस्त बारिश ने कर दिया। यदि मानसून समय से पहले नहीं आता तो बर्फ पिघलने की वह दर और तेज नहीं होती। 
प्रो. दवे की रिपोर्ट में दोनों ग्लेशियर की जलधाराओं के मध्य एक अन्य जलधारा शुरू होने का भी जिक्र है। 
हालांकि खुद को केदारनाथ क्षेत्र के भौगोलिक स्वरूप से अनजान बताते हुए उन्होंने अपनी रिपोर्ट में सिर्फ इतना कहा कि तबाही का जमीनी अध्ययन भी जरूरी है।
' हमने प्रो. दवे की रिपोर्ट का अध्ययन किया, उसमें नासा के चित्रों के आधार पर ग्लेशियर से अधिक जलस्राव की आशंका व्यक्त की गई। 
हमारी टीम ने चार जून को ग्लेशियर का अध्ययन किया था, लेकिन ऐसी आशंका नहीं थी कि ये पानी भीषण तबाही का कारण बन जाएगा।'