Saturday 25 January 2014

-#यादों के झरोंखो से ----

एक प्रयास -------
पहले गणतंत्र दिवस पर और स्वतन्त्रता दिवस पर सुबह-सुबह प्रभात फेरी निकलती थी ....
बचपन में इस दिन हमेशा प्रभात फेरी के लिए तैयार रहते थे .......
........सुबह अँधेरे तैयार हो जाते थे अपनी सफ़ेद स्कूल ड्रैस पहन कर ......
मम्मी या पिताजी स्कूल छोड़ने जाते और वहां तब तक रुके रहते ,जब तक कोई और बच्चा या कोई अध्यापिका ना आ जातीं ..........पंद्रह-बीस बच्चे और तीन -चार अध्यापिकाओ का समूह निकल पड़ता था जय हिन्द और वन्दे मातरम के नारों के साथ ............
डेढ़-दो घंटे घूमने के बाद वापस स्कूल और वहां के कार्यक्रम ...
..................ध्वजारोहण , राष्ट्र गान , सांस्कृतिक कार्यक्रम ............
..........और फिर एक बहु प्रतीक्षित पल .............मिठाई वितरण ..................
हमें मिलता था करीब सौ से डेढ़ सौ ग्राम गरम-गरम गुलदाना जो बांस के लिफ़ाफ़े में होता था
और सच मानिए ......
सरकारी प्राइमरी स्कूल में इस दिन के भव्य आयोजन का सबसे बड़ा आकर्षण यही बॉस का खाकी लिफाफा होता था ..............खाते -पीते शोर मचाते सब आपने -अपने घर की राह पकड़ लेते
अगले ऐसे ही किसी आयोजन की प्रतीक्षा में ..............जय हिन्द ......जय भारत ......
.............................वन्दे मातरम्.....................

विदेशी महिला ने किया था परमवीर चक्र डिजाइन

एक प्रयास --------- 

भारतीय सेना के रणबांकुरों को असाधारण वीरता दर्शाने पर दिए जाने वाले सर्वोच्च पदक परमवीर चक्र का डिजाइन विदेशी मूल की एक महिला ने किया था और 1950 से अब तक इसके आरंभिक स्वरूप में किसी तरह का कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। 
26 जनवरी 1950 को लागू होने के बाद से अब तक अनेक श्रेष्ठतम वीरों के अदम्य साहस को गौरवान्वित कर चुके इस पदक की संरचना एवं इस पर अंकित आकृतियां भारतीय संस्कृति एवं दैविक वीरता को उद्धृत करती हैं। 
भारतीय सेना की ओर से मेजर जनरल हीरालाल अटल ने परमवीर चक्र डिजाइन करने की जिम्मेदारी सावित्री खालोनकर उर्फ सावित्री बाई को सौंपी जो मूल रूप से भारतीय नहीं थीं। 
स्विट्जरलैंड में 20 जुलाई 1913 को जन्मी सावित्री बाई का मूल नाम ईवावोन लिंडा मेडे डे मारोस था जिन्होंने अपने अभिवावक के विरोध के बावजूद 1932 में भारतीय सेना की सिख रेजीमेंट के तत्कालीन कैप्टन विक्रम खानोलकर से प्रेम विवाह के बाद हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया था। 
मेजर जनरल अटल ने भारतीय पौराणिक साहित्य संस्कृत और वेदांत के क्षेत्र में सावित्री बाई के ज्ञान को देखते हुए उन्हें परमवीर चक्र का डिजाइन तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी। 
 उनके पति भी उस समय मेजर जनरल बन चुके थे। 
मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) इयान कारडोजो की प्रकाशित पुस्तक परमवीर चक्र के मुताबिक सावित्री बाई ने भारतीय सेना के भरोसे पर खरा उतरते हुए सैन्य वीरता के सर्वोच्च पदक के डिजाइन के कल्पित रूप को साकार किया। 
पदक की संरचना के लिए उन्होंने महर्षि दधीची से प्रेरणा ली जिन्होंने देवताओं का अमोघ अस्त्र बनाने को अपनी अस्थियां दान कर दी थीं जिससे इंद्र के वज्र का निर्माण हुआ था।

तिरंगे का निर्माण

एक प्रयास ---------
हमारे राष्ट्रीय ध्वज का इतिहास भी बहुत रोचक है। 20वीं सदी में जब देश ब्रिटिश सरकार की ग़ुलामी से मुक्ति पाने के लिए संघर्ष कर रहा था, तब स्वतंत्रता सेनानियों को एक ध्वज की ज़रूरत महसूस हुई, क्योंकि ध्वज स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति का प्रतीक रहा है। सन् 1904 में विवेकानंद की शिष्या सिस्टर निवेदिता ने पहली बार एक ध्वज बनाया, जिसे बाद में सिस्टर निवेदिता ध्वज के नाम से जाना गया। यह ध्वज लाल और पीले रंग से बना था। पहली बार तीन रंग वाला ध्वज सन् 1906 में बंगालके बँटवारे के विरोध में निकाले गए जलूस में शचीन्द्र कुमार बोस लाए। इस ध्वज में सबसे उपर केसरिया रंग, बीच में पीला और सबसे नीचे हरे रंग का उपयोग किया गया था। केसरिया रंग पर 8 अधखिले कमल के फूल सफ़ेद रंग में थे। नीचे हरे रंग पर एक सूर्य और चंद्रमा बना था। बीच में पीले रंग पर हिन्दी में वंदे मातरम् लिखा था।
सन 1908 में भीकाजी कामा ने जर्मनी में तिरंगा झंडा लहराया और इस तिरंगे में सबसे ऊपर हरा रंग था, बीच में केसरिया, सबसे नीचे लाल रंग था। इस झंडे में धार्मिक एकता को दर्शाते हुए; हरा रंग इस्लाम के लिए और केसरिया हिन्दू और सफ़ेद ईसाई व बौद्ध दोनों धर्मों का प्रतीक था। इस ध्वज में भी देवनागरी में वंदे मातरम्लिखा था और सबसे ऊपर 8 कमल बने थे। 
इस ध्वज को भीकाजी कामावीर सावरकर और श्यामजी कृष्ण वर्मा ने मिलकर तैयार किया था। 
प्रथम विश्व युद्ध के समय इस ध्वज को बर्लिन कमेटी ध्वज के नाम से जाना गया, क्योंकि इसे बर्लिन कमेटी में भारतीय क्रांतिकारियों द्वारा अपनाया गया था।

तिरंगे का विकास

सन 1916 में पिंगली वेंकैया ने एक ऐसे ध्वज की कल्पना की, 
जो सभी भारतवासियों को एक सूत्र में बाँध दे। 
उनकी इस पहल को एस.बी. बोमान जी और उमर सोमानी जी का साथ मिला 
और इन तीनों ने मिल कर नेशनल फ़्लैग मिशन का गठन किया।
 वेंकैया ने राष्ट्रीय ध्वज के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से सलाह ली 
और गांधी जी ने उन्हें इस ध्वज के बीच में अशोक चक्र रखने की सलाह दी, 
जो संपूर्ण भारत को एक सूत्र में बाँधने का संकेत बने। 
पिंगली वेंकैया लाल और हरे रंग के की पृष्ठभूमि पर अशोक चक्र बना कर लाए पर गांधी जी को यह ध्वज ऐसा नहीं लगा कि जो संपूर्ण भारत का प्रतिनिधित्व कर सकता है। 
राष्ट्रीय ध्वज में रंग को लेकर तरह-तरह के वाद-विवाद चलते रहे। 
अखिल भारतीय संस्कृत कांग्रेस ने सन् 1924 में ध्वज में केसरिया रंग और बीच में गदा डालने की सलाह इस तर्क के साथ दी कि यह हिंदुओं का प्रतीक है। 
फिर इसी क्रम में किसी ने गेरुआ रंग डालने का विचार इस तर्क के साथ दिया कि ये हिन्दूमुसलमान और सिख तीनों धर्म को व्यक्त करता है।

कमेटी का गठन

काफ़ी तर्क वितर्क के बाद भी जब सब एकमत नहीं हो पाए तो 
सन् 1931 में 'अखिल भारतीय कांग्रेस' के ध्वज को मूर्त रूप देने के लिए 7 सदस्यों की एक कमेटी बनाई गई। इसी साल कराची कांग्रेस कमेटी की बैठक में पिंगली वेंकैया द्वारा तैयार ध्वज, 
जिसमें केसरिया, श्वेत और हरे रंग के साथ केंद्र में अशोक चक्र स्थित था, 
को सहमति मिल गई। इसी ध्वज के तले आज़ादी के परवानों ने कई आंदोलन किए और 1947 में अंग्रेज़ों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया। 
आज़ादी की घोषणा से कुछ दिन पहले फिर कांग्रेस के सामने ये प्रश्न आ खड़ा हुआ कि अब राष्ट्रीय ध्वज को क्या रूप दिया जाए।
 इसके लिए फिर से डॉ. राजेंद्र प्रसाद के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई गई 
और तीन सप्ताह बाद 14 अगस्त को इस कमेटी ने 
'अखिल भारतीय कांग्रेस' के ध्वज को ही राष्ट्रीय ध्वज के रूप में घोषित करने की सिफ़ारिश की। 
15 अगस्त1947 को तिरंगा हमारी आज़ादी और हमारे देश की आज़ादी का प्रतीक बन गया।

प्रथम ध्वज-----------------

1906 में पहली बार भारत का गैर आधिकारिक ध्‍वज फ़हराया गया था। 
1904 में स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता द्वारा बनाया गया था। 
7 अगस्त, 1906 को 'बंगाल विभाजन' के विरोध में पारसी बागान चौक (ग्रीन पार्क) 
कलकत्ता में इसे कांग्रेस के अधिवेशन ने फहराया था। प्रथम ध्वज लाल, पीले और हरे रंग की क्षैतिज पट्टियों से बनाया गया था। 
ऊपर की ओर हरी पट्टी में 8 आधे खिले हुए कमल के फूल थे 
और नीचे की लाल पट्टी में सूरज और 
चाँदबनाए गए थे व बीच की पीली पट्टी पर 'वन्दे मातरम्' लिखा गया था।
 वह तिरंगा झंडा, जिसे पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 
आज से 60 साल पहले संसद के केंद्रीय कक्ष में फहराया था, 
गायब बताया जा रहा है।
द्वितीय ध्वज------------

द्वितीय ध्वज को पेरिस में भीकाजी कामा और 1907 में उनके साथ निर्वासित किए गए कुछ क्रांतिकारियों द्वारा फहराया गया था। कुछ लोगों की मान्यता के अनुसार यह 1905 में हुआ था। ध्वजारोहण के बाद सुबह साढ़े आठ बजे इंडिया गेट पर लोगों के हुजूम की 
करतल ध्वनि के बीच यूनियन जैक को उतारकर 
भारतीय राष्ट्रीय झंडे को फहराया गया था। 
यह भी पहले ध्‍वज के समान था सिवाय इसके कि 
इसमें सबसे ऊपरी की पट्टी पर केवल एक कमल था, 
किंतु सात तारे सप्‍तऋषि को दर्शाते हैं। 
यह ध्‍वज बर्लिन में हुए समाजवादी सम्‍मेलन में भी प्रदर्शित किया गया था।


तृतीय ध्वज


15 अगस्त की सुबह लाल क़िले में भी तिरंगा लहराया था। आज़ादी के साठ साल हो चुके हैं, लेकिन कोई नहीं जानता कि वे तीनों झंडे कहाँ हैं और न ही उनका पता लगाने की कोशिश की गई।


1917 में भारतीय राजनीतिक संघर्ष ने एक निश्चित मोड़ लिया। 
डॉ. एनी बीसेंट और लोकमान्य तिलक ने घरेलू शासन आंदोलन के दौरान इसे फहराया। 
इस ध्‍वज में 5 लाल और 4 हरी क्षैतिज पट्टियाँ एक के बाद एक 
और सप्‍तऋषि के अभिविन्‍यास में इस पर बने सात सितारे थे। 
बांयी और ऊपरी किनारे पर यूनियन जैक था। 
एक कोने में सफ़ेद अर्धचंद्र और सितारा भी था।
आज़ादी की 60वीं सालगिरह और 1857 के विद्रोह के 
150 साल के अवसर पर समारोहों का समन्वय कर रहे 
संस्कृति मंत्रालय को भी आज़ाद भारत में फहराए गए 
पहले झंडों के बारे में कोई जानकारी नहीं है। 
केन्द्रीय संस्कृति मंत्री अंबिका सोनी ने कहा, 
स्वतंत्रता दिवस समारोह रक्षा मंत्रालय आयोजित करता है। 
उसे इसका पता लगाना चाहिए। अगर पता लग जाए तो 
उन्हें हमारे संग्रहालय में रखा जा सकता है।
संस्कृति मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि 
1997 में आज़ादी की 50वीं सालगिरह के 
अवसर पर इन झंडों का पता लगाने की कोशिश हुई थी। 
मंत्रालय ने झंडों का पता लगाने के लिए रक्षा मंत्रालय को लिखा था। 
लेकिन कोई रेकॉर्ड नहीं होने से उनके बारे में कुछ पता नहीं लगा।
संसद अभिलेखागार के निदेशक फ्रैंक क्रिस्टोफर ने बताया, 
हमारे पास संसद से जुड़े कई स्मृतिचिह्न हैं, 
लेकिन 14 अगस्त की रात को फहराया गया झंडा नहीं है। 
अगर उसका पता लग जाए तो हम उसे अपने अभिलेखागार में रखना चाहेंगे। लोकसभा के महासचिव पी. डी. टी. आचार्य का कहना है, 
कोई नहीं जानता कि सेंट्रल हॉल में पंडित नेहरू द्वारा फहराया गया तिरंगा कहाँ है, 
क्योंकि उसका कोई रेकॉर्ड उपलब्ध नहीं है।

तिरंगा

एक प्रयास ------

तिरंगा
तिरंगा
नामतिरंगा
प्रयोगराष्ट्रीय ध्वज
अनुपात2:3
अंगीकृत22 जुलाई1947
रूपरेखातिरंगे में सबसे ऊपर गहरा केसरिया, बीच मेंसफ़ेद और सबसे नीचे गहरा हरा रंग बराबर अनुपात में है। सफ़ेद पट्टी के केंद्र में गहरा नीले रंगका चक्र है। चक्र की परिधि लगभग सफ़ेद पट्टी की चौड़ाई के बराबर है। चक्र में 24 तीलियाँ हैं।
अभिकल्पनाकर्तापिंगलि वेंकय्या
संबंधित लेखवन्दे मातरम्राष्ट्रगान,स्वतंत्रता दिवसगणतंत्र दिवस
विशेषसन् 1904 में स्वामी विवेकानन्द की शिष्यासिस्टर निवेदिता ने पहली बार एक ध्वज बनाया था, जिसे बाद में 'सिस्टर निवेदिता' ध्वज के नाम से जाना गया।
अन्य जानकारीहर 'स्वतंत्रता दिवस' और 'गणतंत्र दिवस' पर लाल क़िले की प्राचीर पर राष्ट्रीय ध्वज को बड़े ही आदर और सम्मान के साथ फहराया जाता है।

Wednesday 22 January 2014

एतिहासिक धरोहर

एक प्रयास ---------

कोलकाता स्थित नेताजी भवन में रखी कार
 जिसमें बैठकर सुभाष चन्द्र बोस घर से फरार हुए
कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) स्थित नेताजी भवन 
जहाँ से सुभाष चन्द्र बोस वेश बदल कर फरार हुए थे। 
इस घर में अब नेताजी रिसर्च ब्यूरो स्थापित कर दिया गया है। 
भवन के बाहर लगे होर्डिंग पर सैनिक कमाण्डर वेष में 
नेताजी का चित्र साफ दिख रहा है।
सुभाष का उनकी पत्नी के साथ दुर्लभ चित्र


आजादी के आंदोलन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का योगदान

एक प्रयास --------- नेताजी ने जब 1942 में हिटलर से मुलाकत की थी उस समय  हिटलर से सारी दुनियाँ कांपती थी |उस हिटलर के समक्ष नेताजी ने बड़ी निर्भीकता के साथ उसके द्वारा लिखी गई आत्मकथा रखी जिस पर  भारत के लोगो के बारे में कुछ गलत टिप्पणियाँ थी 
उसको नेताजी ने हिटलर के सामने उठाया था और उससे कहा था कि आप जैसा सोचते हैं वैसा भारत में नहीं है | 
आप अपनी इस पुस्तक के अगले संस्करण में इन त्रुटियों को ठीक करें | 
ऐसा कहने हिम्मत वो भी एक दूसरे देश के नागरिक की और हिटलर के सामने किसी की नही हो सकती थी वो हिम्मत नेताजी ने दिखाई थी | 
तो हिटलर ने नेताजी को कहा कि जर्मनी में एक शब्द होता 'फ्युरर' इसका अर्थ होता है “नेताओ का नेता” |

हिटलर ने नेताजी को खुद कहा कि तुम भारत के फ्युरर हो अर्थात भारत के नेताओं के नेता हो | 


1938 में जब नेता जी काँग्रेस के अध्यक्ष बने | 
उसके बाद दूसरा विश्व युध्द प्रारम्भ हो गया था | 
तो नेताजी ने भारत के कई नेता जैसे गांधीजी , पटेल जी ,नेहरु जी और कई नेताओं से आग्रह किया कि इस युद्ध में हम अंग्रेजो के उपर पूरी ताकत के साथ प्रहार करें | ज
बकि गांधीजी यह कहते थे कि दुश्मन जब कमजोर हो तो उस समय प्रहार करना उचित नहीं है | 
नेताजी यह सोचते थे कि हमें कैसे भी करके आजादी लेनी है | 
 1939 में गांधीजी ने नेताजी को काँग्रेस का अध्यक्ष नहीं बनाया | 
पहली बार चुनाव करवाए गए और गांधीजी की और से पट्टा बी  सीताराम रमया को उम्मीदवार बनाया गया तो  दूसरी तरफ नेताजी खड़े हुए | 
काँग्रेस के इतिहास में यह सबसे बड़ी घटना हुई कि नेताजी ने पट्टा बी सीताराम को 201 वोटो से हराकर जीत हासिल कि थी 
 उसके बाद गांधीजी को यह कहना पड़ा था कि यह मेरी व्यक्तिगत हार है | 
अप्रेल 1939 में नेताजी ने काँग्रेस को छोड दिया | 
 उसके बाद अंग्रेजो को अन्तराष्ट्रीय स्तर पर गिराने के लिय नेताजी ने भारत के बाहर सबसे बड़ा कार्य यह किया कि 1943 में भारत के बाहर आजाद हिंद सरकार का गठन किया और सारे अंग्रेजो को आक्रमण कारी घोषित कर दिया | 
सबसे ज़्यादा बुद्धिमानी ये की कि 09 देशो से अपनी बात को मान्यता भी दिलवा दी 
कई लोगों ने नेताजी के बारे में भला बुरा कहा लेकिन नेताजी ने सबका सदैव समान किया |

महात्मा गांधीजी को सबसे पहले राष्ट्रपिता का संबोधन 06 जुलाई 1944 को टोकियो जापान के रेडियो सन्देश में नेताजी ने दिया था |

रंगून के जुबली हाल में नेताजी ने नारा दिया था कि तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा | 
नेताजी ने उस समय लोगो से दान देने का आह्वान किया था ,जब यह आह्वान किया तो सभा में एक व्यक्ति खड़ा हुआ और उसने उस समय अपनी एक करोड़ की सम्पति नेताजी को दान कर दी | 
 वो एक रंगून का मुस्लिम व्यक्ति था | 
जब नेताजी ने उससे पूछा कि तुमने अपना सब कुछ दे दिया अब तुम क्या करोगे ..?
तो उसने उत्तर दिया मैं खुद आजाद हिंद सेना में भर्ती होऊंगा और मेरी पत्नी रानी लक्ष्मी बाई रेजिमेंट में भर्ती होगी तथा मेरा बेटा नेताजी की बाल सेना में कार्य करेगा |
1943-44 में जब महिलाओं को बुरी स्थिति में रखा जाता था उस समय नेताजी ने रानी लक्ष्मीबाई रेजिमेंट की स्थापना करके माताओं और बहनों को सम्मान दिया था | 
1947 में जब भारत का विभाजन हुआ तो खुद गांधीजी को यह कहना पड़ा था कि आज अगर नेताजी जिन्दा होते तो भारत को विभाजन नही होने देते | .........

नेताजी जी सेना हिन्दुओ और मुसलमानों को बराबर सम्मान था | 
वे उनको बराबर सहयोग देते थे | 
18अगस्त 1945को जब नेताजी ने अंतिम उड़ान भरी थी तो उनके साथ हबीबुर्रहमान था जो  कि एक मुस्लिम व्यक्ति ही था |
आजाद हिंद सरकार का गठन किया तो नेताजी को पूरा भरोसा था कि मैं जो कार्य करा रह हूं उससे भारत को आजादी तो जल्द ही मिलने वाली है लेकिन उसके बाद भी यदि अंग्रेजो के द्वारा बनाई गई व्यवस्थाएँ नहीं बदली तो हम सही मायने में आजाद नहीं हो पायेंगे | 
इसके लिय नेताजी ने भारत के अलग अलग विद्वानों के दल बनाये और उनको आस्ट्रिया ,जर्मनी ,रूस .फ्रांस , युगोस्लाविया ,बुल्गेरिया व अनेक देशों की व्यवस्थाओं का अध्ययन करने के लिय भेज दिया था | 
वे भारत की शिक्षा ,चिकित्सा ,अर्थ ,कृषि ,सहित अनेक व्यवस्थाओं को बदलना चाहते थे लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि नेताजी चले गए और वे सभी व्यवस्थाएँ नहीं बदल पाई और भारत कि जनता को सही मायने में न्याय नही मिल पाया |
..जय हिन्द .....





आजादी के आंदोलन में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का योगदान

एक प्रयास ---------
1947 में में जब भारत से अंग्रेज चले गए थे उस समय ब्रिटेन का प्रधानमंत्री था एटली 
1956में जब भारत में पश्चिम बंगाल में घूमने के लिए आया तो उस समय बंगाल में हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस पी . वी चक्रवर्ती वहां के कार्यवाहक राज्यपाल थे | 
उनके यहाँ वो जब ठहरा तो चक्रवर्ती जी ने एटली से पूछा कि 1947 में आपने भारत को आजाद क्यों किया ? 
1942 में जब आपने महात्मा गाँधी जी के आंदोलन को कुचल दिया था | 
1945 में विश्व युद्ध में आपने जीत दर्ज कर ली थी और आपके पास परमाणु बम जैसे हथियार थे ..फिर भी आपने आजादी क्यों दी ?  
तो एटली ने कहा कि भारत के आजाद करने के वैसे तो कई कारण थे लेकिन उसमे सबसे बड़ा कारण था नेताजी सुभाष चन्द्र बोस |
 चक्रवर्ती जी ने पूछा कि सुभाष चन्द्र बोस को तो आपने 1933 में ही देश निकाला दे दिया था और वो तो 1941 में देश छोडकर चले गए थे | फिर ..???
तो नेताजी इसका कारण कैसे हुए ? 
 एटली ने जबाब दिया कि हम भारत के उपर राज भारतीय सैनिकों के कारन कर रहे थे  | भारतीय सैनिक ब्रिटिश राजमुकुट में श्रद्धा रखते थे और हमारे आदेशानुसार चलते थे | 
नेताजी ने जब आजाद हिंद फौज बनाई तो उन भारतीय सैनिकों की श्रद्धा ब्रिटेन के राजमुकुट में नहीं रही | 
यह एक बड़ा कारण है | 
जैसे ही आजाद हिंद सेना ने भारत के रास्ते ,बर्मा के रास्ते ,मणिपुर .मेघालय के रास्ते आक्रमण किया और नेताजी ने  दिल्ली चलो का नारा दिया उस समय भारत के अंदर जितने सैनिक थे उन्होंने अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह कर दिया | 
नेताजी ने हमारी रीढ़ तोड़ दी |
और उसके बाद पूरा भारत ज्वालामुखी की विस्फोटक हो गया  |
तो हमें लगा कि अब हमें भारत छोडकर चले जाना चाहिय |................

जय हिंद" - हमारे नारे की कहानी-साभार अंतरजाल

एक प्रयास ---------
वैसे तो जय हिन्द नारे का सीधा सम्बन्ध नेताजी से है मगर सबसे पहले प्रयोगकर्ता नेताजी सुभाष नहीं थे.
देखना यह है किसके हृदय में सबसे पहले उमड़ा ये नारा और आम भारतीयों के लिए विजय-घोष बन गया.

“जय हिन्द” के नारे की शुरूआत क्रांतिकारी चेम्बाकरमण पिल्लई से होती है
उनका का जन्म 15 सितम्बर 1891 को थिरूवनंतपुरम में हुआ था.
गुलामी के के आदी हो चुके देशवासियों में आजादी की आकांक्षा के बीज डालने के लिए उन्होने कॉलेज में  “जय हिन्द” को अभिवादन के रूप में प्रयोग करना शुरू किया.

1908 में पिल्लई आगे के अभ्यास के लिए जर्मनी चले गए.
अर्थशास्त्र में पी.एच.डी करने के बाद जर्मनी से ही अंग्रेजो के विरूद्ध क्रांतिकारी गतिविधियाँ शुरू की.
प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ तो उन्होने जर्मन नौ-सेना में जूनियर अफसर का पद सम्भाला.

22 सितम्बर 1914 के दिन “एम्डेन” नामक जर्मन जहाज से चेन्नई पर बमबारी की. पिल्लई 1933 में आस्ट्रिया की राजधानी वियना में नेताजी सुभाष से मिले तब “जय हिन्द” से उनका अभिवादन किया.
पहली बार सुने ये शब्द नेताजी को बहुत प्रभावित कर गए.

इधर नेताजी आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना करना चाहते थे.
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी ने जिन ब्रिटिश सैनिको को कैद किया था,
उनमें भारतीय सैनिक भी थे.
1941 में जर्मन की क़ैदियों की छावणी में नेताजी ने इन्हे सम्बोधित किया तथा अंग्रेजो का पक्ष छोड़ आजाद हिन्द फौज में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया.

यह समाचार अखबारों में छपा तो जर्मन में रह रहे भारतीय विद्यार्थी आबिद हुसैन ने अपनी पढ़ाई छोड़ नेताजी के सेक्रेट्री का पद सम्भाल लिया.
आजाद हिन्द फौज के सैनिक आपस में अभिवादन किस भारतीय शब्द से करे यह प्रश्न सामने आया
तब हुसैन ने”जय हिन्द” का सुझाव दिया.
अंतः 2 नवम्बर 1941 को “जय-हिन्द” फौज का युद्धघोष बन गया.
जल्दी ही भारत भर में यह गूँजने लगा, मात्र कॉंग्रेस पर तब इसका प्रभाव नहीं था.

1946 में एक चुनाव सभा में जब लोग “कॉग्रेस जिन्दाबाद” के नारे लगा रहे थे,
 नेहरूजी ने लोगो से “जय हिन्द” का नारा लगाने के लिए कहा.
 अब तक “वन्दे-मातरम” ही कॉंग्रेस की अहिंसक लड़ाई का नारा रहा था,

15 अगस्त 1947 को नेहरूजी ने लाल किल्ले से अपने पहले भाषण का समापन “जय हिन्द” से किया.
सभी डाकघरों को सूचना भेजी गई कि डाक टिकट चाहे जोर्ज की मुखाकृति की उपयोग में आये उस पर मुहर “जय हिन्द” की लगाई जाये.
 31 दिसम्बर 1947 तक यही मुहर चलती रही
जोधपुर के गिर्दीकोट डाकघर ने इसका उपयोग नवम्बर 1955 तक जारी रखा.
आज़ाद भारत की पहली डाक टिकट पर भी “जय हिन्द” लिखा हुआ था.

“जय हिन्द” अमर हो गया मगर क्रांतिकारी चेम्बाकरमण पिल्लई इतिहास में कहीं खो गए.........“जय हिन्द” 

Friday 17 January 2014

..श्रधांजलि.

एक प्रयास ---------रहे न रहे हम महका करेंगे -----------
.................श्रधांजली...'सुचित्रा सेन" !!

Thursday 16 January 2014

भाषाओं की क़ब्रगाह बन गया भारत'

एक प्रयास --------
-पिछले 50 साल में भारत की क़रीब 20 फीसदी भाषाएं विलुप्त हो गई हैं. 
50 साल पहले 1961 की जनगणना के बाद
 1652 मातृभाषाओं का पता चला था. 
उसके बाद ऐसी कोई लिस्ट नहीं बनी.
उस वक़्त माना गया था कि 1652 नामों में से क़रीब 1100 मातृभाषाएं थीं,
क्योंकि कई बार लोग ग़लत सूचनाएं दे देते थे.
भाषाओं का इतिहास तो 70 हज़ार साल पुराना है 
जबकि भाषाएं लिखने का इतिहास सिर्फ़ चार हज़ार साल पुराना ही है.
 इसलिए ऐसी भाषाओं के लिए यह संस्कृति का ह्रास है.
पिछले 50 साल में हिंदीभाषी 26 करोड़ से बढ़कर 42 करोड़ हो गए 
जबकि अंग्रेज़ी बोलने वालों की संख्या 33 करोड़ से बढ़कर 49 करोड़ हो गई. 
इस तरह हिंदी की वृद्धि दर अंग्रेज़ी से ज़्यादा है.
गणेश डेवी के मुताबिक भारत की 250 भाषाएं विलुप्त हो गई हैं

मोदी जी की कविता

एक प्रयास ---------80 के दशक में लिखी गयी मोदी जी की यह कविता आप भी पढि़ए..

उत्सव
पतंग..मेरे लिए उ‌र्घ्वगति का उत्सव,
मेरा सूर्य की ओर प्रयाण।

पतंग..मेरे जन्म-जन्मांतर का वैभव,
मेरी डोर मेरे हाथ में..
पदचिन्ह पृथ्वी पर,

आकाश में..
विहंगम दृश्य सेसा,
मेरा पतंग..अनेक पतंगों के बिच,
मेरा पतंग उलझता नहीं..

वृक्षों की डालियों में फंसता नहीं..
पतंग..मानो मेरा गायत्री मंत्र,
धनवान हो या रंक,
सभी को..
कटी पतंग एकत्र करने का आनंद होता है।
बहुत ही अनोखा आनंद,
कटी पतंग के पास..

आकाश का अनुभव है.
हवा की गति और दिशा का ज्ञान है..
स्वयं एक बार ऊंचाई तक गया है वहां कुछ क्षण रुका है।
इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

पतंग..मेरा सूर्य की ओर प्रयाण..
पतंग का जीवन उसकी डोर में है।
पतंग का आराध्य (शिव) ब्योम (आकाश) में..

पतंग की डोर मेरे हाथ में..
मेरी डोर शिव जी के हाथ में..
जीवन रूपी पतंग के लिये (हवा के लिये),
शिव जी हिमालय में बैठे हैं।

पतंग के सपने (जीवन के सपने),
मानव से ऊंचे..
पतंग उड़ती है, शिव जी के आस-पास,
मनुष्य जीवन में बैठा - बैठा ..
उसको (डोर) सुलझाने में लगा रहता है।