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Friday, 18 October 2013

यादोँ के झरोँखोँ से-

एक प्रयास -------

 आज विज्ञान ने चंदा की सच्चाई तक तो पहुँचा दिया है लेकिन भावनाओँ से जुड़े चंदा मामा आसमान से विलुप्त हो चुके हैँ , 

न तो मामा अब दूर रहे और न ही अब पुये पकते है ! आज शरद पूर्णिमा के दिन कुछ यादोँ ने घेर लिया -- 

शाम को चिड़वे की खीर बना कर माता श्री धवल चाँदनी मेँ रखती थीँ और भगवानजी भी श्वेत वस्त्र धारण कर चाँदनी का लुत्फ उठाते थे ,





हम सब आँगन मेँ चटाई बिछा कर चाँद की रोशनी मेँ सुई पिरोया करते थे , 
बार-बार धागा निकाला और फिर पिरोया , कोई 50 , कोई 70 बार और कोई 100 बार , होड़ लगी रहती थी आगे निकलने की ॥ 

...........कहते थे इससे आँखोँ की रोशनी तेज़ होती है  
...........................आज ना चाँद और न ही चाँदनी , क्या दिन थे


शरद पूर्णिमा के अवसर पर सभी मित्रोँ को शुभकामनायेँ ।

कहाँ-कहाँ मिली खज़ाने की अकूत संपदा

एक प्रयास ---------


खज़ाना
भारतीय पुरातत्व विभाग का एक दल उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले में शुक्रवार को खुदाई शुरू कर देगा. यह खुदाई कथित रूप से शोभन सरकार नामक एक साधु के एक सपना देखने पर आधारित है.
इस साधु ने सपना देखा था कि राजाराव रामबक्श के किले के खंडहर में एक हज़ार टन सोना दबा हुआ है. जबकि भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने यहाँ जमीन के नीचे भारी मात्रा में किसी धातु के दबे होने की पुष्टि की है.

श्री पद्मानाभास्वामी मंदिर
भारत में पहले भी इस तरह खज़ाने मिलने की बात जब-तब सामने आती रही हैं. आइए जानते हैं ऐसे ही कुछ चर्चित मामलों के बारे में.
फरवरी, 2012 के में केरल के तिरुवनंतपुरम में 16वीं सदी के श्री क्लिक करेंपद्मानाभास्वामी (विष्णु) मंदिर के दो भूमिगत तहखानों से अरबों रुपए के कीमती हीरे, सोना और चांदी बरामद हुई थी.
इस मंदिर को 16वीं सदी में त्रावनकोर के राजाओं ने बनवाया था. स्थानीय लोकगाथाओं में ज़िक्र है कि मंदिर की दीवारों और तहखानों में राजाओं ने ख़ासे हीरे- जवाहरात छिपा दिए थे.
देश में भगवान विष्‍णु के मशहूर मंदिरों में शुमार इस मंदिर में नौ सौ अरब रुपए की कीमत का खज़ाना होने की बात कही जा रही थी.
रिपोर्टों के मुताबिक मंदिर के खज़ाने को सूचीबद्ध करने के लिए विशेष रुप से विकसित किए गए डिवाइस का इस्तेमाल किया गया था.
माना जाता है कि श्री पद्मानाभास्वामी (विष्णु) मंदिर के चार में से दो तहखानों को पिछले 130 वर्षों से खोला नहीं गया था. सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सात सदस्यों की एक समिति को इनमें दाख़िल होने और वहाँ मौजूद चीज़ों का आकलन करने का आदेश दिया था.
अनाधिकारिक आकलन के मुताबिक चार दिन के निरीक्षण में पाई गई चीज़ों की कीमत करीब 25 अरब रुपए थी.
लेकिन इतिहासकारों का कहना है कि इन चीज़ों की असल कीमत बता पाना बहुत ही मुश्किल है.

हैदराबाद में खज़ाना---------------


फरवरी, 2012 ही में हैदराबाद में पुरातत्व विभाग ने कथित ख़जाने की खोज में एक स्कूल के पास से अंधाधुंध खुदाई की लेकिन क्लिक करेंखज़ाना मिलना तो दूर एक कौड़ी भी नहीं मिली.
जिस पहाड़ी पर खुदाई की जा रही थी उसे नौबत पहाड़ के नाम से जाना जाता है जिस पर मशहूर बिरला मंदिर बना हुआ है. राज्य सचिवालय भी इस मंदिर से नजदीक ही है.
चन्ना रेड्डी की अगुआई में बड़ी गंभीरता से खुदाई कर रहे पुरातत्व विभाग के अधिकारियों को भरोसा था कि यहाँ एक गुफा और ख़जाना निकलेगा.
लेकिन स्थानीय लोग और अन्य पुरातत्व विशेषज्ञ इस प्रयास का मज़ाक उड़ा रहे थे. उनका कहना था कि इस जगह पर कभी कोई गुफा नहीं थी.
खुदाई वाली जगह पर वानपर्ति संस्थान का मालिकाना हक़ है. इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज की संयोजक अनुराधा रेड्डी इस खुदाई से नाराज़ भी हुईं थीं.
आंध्र प्रदेश के पुरातत्व विभाग के मंत्री वट्टी वसंत कुमान ने भी खुदाई वाली जगह का मुआयना किया था.
अधिकारियों ने खुदाई की जगह तीन बार बदली लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिला.
श्री पद्मानाभास्वामी (विष्णु) मंदिर के दो भूमिगत तहखानों से अरबों रुपए के कीमती हीरे, सोना और चांदी बरामद हुई थी.

बिहार के भरतपुरा में खज़ाना-------------------

बिहार के भरतपुरा गाँव में दिख रहे ऊंचे टीले पर निजी मकान के एक हिस्से में दुर्लभ पांडुलिपियों के अलावा अति प्राचीन सिक्कों और कलाकृतियों का अदभुत संग्रह हो सकता है.
भरतपुरा लाइब्रेरी के नाम से जाने जा रहे इस छोटे-से संग्रहालय की सुरक्षा तब से बढ़ा दी गई, जब चार दशक पहले यहाँ से चुराई गई कुछ बहुमूल्य कृतियों को सीबीआई ने बड़ी मुश्किल से बरामद किया था.

जयगढ़ का खज़ाना

ऐसा माना जाता है जयपुर के राजा मान सिंह प्रथम ने अपना अकूत खज़ाना सम्राट अकबर से बचाकर जयगढ़ के किले में छिपा दिया था.
स्थानीय पूर्वजों के अनुसार राजा मान सिंह ने यह खज़ाना भूमिगत कुंओं में छिपा दिया था. कहा जाता है पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल के वक्त जयगढ़ के किले में खुदाई का आदेश दिया था.

उस वक्त विपक्षी दलों ने इंदिरा गाँधी पर आरोप लगाया था कि उन्होंने दिल्ली-जयपुर मार्ग जनता के लिए बंद कर दिया था और किले में मिले खज़ाने को सेना के ट्रकों में लादकर प्रधानमंत्री निवास ले जाया गया था.
हालाँकि अभी तक इस बारे में कोई पुष्ट जानकारी नहीं मिली है कि मानसिंह का खज़ाना था भी या नहीं, और अगर था तो यह अभी भी जयगढ़ के किले में ही छिपा है या निकाल लिया गया है?

कोल्हापुर के महालक्ष्मी मंदिर का खज़ाना--------------

जनवरी 2010 में महाराष्ट्र के कोल्हापुर में स्थित महालक्ष्मी मंदिर के महाखज़ाने ने सबकी आँखें चौंधिया दीं थीं.
करीब 900 साल पुराने इस मंदिर में खज़ाने की गिनती के दौरान बेशुमार करोड़ों के हीरे- जवाहरात औऱ आभूषण पाए गए थे.
कहा जाता है कि मंदिर में कोंकण के राजाओं, चालुक्य राजाओं, आदिल शाह, शिवाजी और उनकी मां जीजाबाई तक ने चढ़ावा चढ़ाया था.
यह मंदिर 27 हजार वर्गफीट में फैला हुआ है. आदि शंकराचार्य ने महालक्ष्मी की मूर्ति की मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा की थी.

Sunday, 13 October 2013

कभी मत पूछना कौन राम , कैसे राम

एक प्रयास ---------

दिल्ली के सुभाष मैदान में पीएम की मौजूदगी में हुआ रावण दहन---

अब हम भी साक्षी हैं सोनिया जी और मनमोहन जी

कभी मत पूछना कौन राम , कैसे राम .............!!!!!!!!!!!!!!!

Tuesday, 23 July 2013

1 घंटे की मुलाकात और डॉक्टर से कैप्टन बन गईं लक्ष्मी सहगल

एक प्रयास ---------


Freedom fighter Captain Lakshmi Sahgal
1 घंटे की मुलाकात और डॉक्टर से कैप्टन बन गईं लक्ष्मी सहगल
कैप्टन डॉ. लक्ष्मी सहगल महान स्वतंत्रता सेनानी और आजाद हिंद फौज की अधिकारी थीं। 
वह आजाद हिंद सरकार में महिला मामलों की मंत्री भी रहीं। उनकी  पुण्यतिथि पर कुछ यूं पेश हैं उन्हें श्रद्धांजलि..
जीवन परिचय:
भारत की आजादी में अहम भूमिका अदा करने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सुभाष चंद्र बोस की सहयोगी रहीं कैप्टन लक्ष्मी सहगल का जन्म 24 अक्टूबर, 1914 को मद्रास (अब चेन्नई) में हुआ था। शादी से पहले उनका नाम लक्ष्मी स्वामीनाथन था। पिता का नाम डॉ. एस. स्वामीनाथन और माता का नाम एवी अमुक्कुट्टी (अम्मू) था। पिता मद्रास उच्च न्यायालय के जाने माने वकील थे। माता अम्मू स्वामीनाथन एक समाजसेवी और केरल के एक जाने-माने स्वतंत्रता सेनानी परिवार से थीं, जिन्होंने आजादी के आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। यह एक तमिल परंपरावादी परिवार था। लक्ष्मी सहगल शुरुआती दिनों से ही भावुक और दूसरों की मदद करने वाली रहीं।
शिक्षा और आरंभिक जीवन:
कैप्टन लक्ष्मी पढ़ाई में कुशल थीं। वर्ष 1930 में पिता के देहावसान का साहसपूर्वक सामना करते हुए 1932 में लक्ष्मी ने विज्ञान में स्नातक परीक्षा पास की। कैप्टन सहगल शुरू से ही बीमार गरीबों को इलाज के लिए परेशान देखकर दुखी हो जाती थीं। इसी के मद्देनजर उन्होंने गरीबों की सेवा के लिए चिकित्सा पेशा चुना और 1938 में मद्रास मेडिकल कालेज से एमबीबीएस की डिग्री हासिल की। उसके बाद उन्होंने डिप्लोमा इन गाइनिकोलॉजी भी किया और अगले वर्ष 1939 में वह महिला रोग विशेषज्ञ बनीं। पढ़ाई समाप्त करने के दो वर्ष बाद लक्ष्मी को विदेश जाने का अवसर मिला और वह 1940 में सिंगापुर चली गई। जहां उन्होंने गरीब भारतीयों और मजदूरों (माइग्रेंटस लेबर) के लिए एक चिकित्सा शिविर लगाया और उनका इलाज किया।
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान:
सिंगापुर में उन्होंने न केवल भारत से आए अप्रवासी मजदूरों के लिए नि:शुल्क चिकित्सालय खोला, बल्कि भारत स्वतंत्रता संघ की सक्रिय सदस्या भी बनीं। वर्ष 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब अंग्रेजों ने सिंगापुर को जापानियों को समर्पित कर दिया, तब उन्होंने घायल युद्धबंदियों के लिए काफी काम किया। उसी समय ब्रिटिश सेना के बहुत से भारतीय सैनिकों के मन में अपने देश की स्वतंत्रता के लिए काम करने का विचार उठ रहा था।
नेताजी से मुलाकात:
विदेश में मजदूरों की हालत और उनके ऊपर हो रहे जुल्मों को देखकर उनका दिल भर आया। उन्होंने निश्चय किया कि वह अपने देश की आजादी के लिए कुछ करेंगी। लक्ष्मी के दिल में आजादी की अलख जग चुकी थी, इसी दौरान देश की आजादी की मशाल लिए नेता जी सुभाष चंद्र बोस दो जुलाई, 1943 को सिंगापुर आए तो डॉ. लक्ष्मी भी उनके विचारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकीं और अंतत: करीब एक घंटे की मुलाकात के बीच लक्ष्मी ने यह इच्छा जता दी कि वह उनके साथ भारत की आजादी की लड़ाई में उतरना चाहती हैं। लक्ष्मी के भीतर आजादी का जज्बा देखने के बाद नेताजी ने उनके नेतृत्व में रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट बनाने की घोषणा कर दी, जिसमें वह वीर नारियां शामिल की गई जो देश के लिए अपनी जान दे सकती थीं। 22 अक्टूबर, 1943 में डॉ. लक्ष्मी ने रानी झांसी रेजीमेंट में कैप्टन पद पर कार्यभार संभाला। अपने साहस और अद्भुत कार्य की बदौलत बाद में उन्हें कर्नल का पद भी मिला, जो एशिया में किसी महिला को पहली बार मिला था। लेकिन लोगों ने उन्हें कैप्टन लक्ष्मी के रूप में ही याद रखा। डॉ. लक्ष्मी अस्थाई आजाद हिंद सरकार की कैबिनेट में पहली महिला सदस्य बनीं। वह आजाद हिंद फौज की अधिकारी तथा आाजाद हिंद सरकार में महिला मामलों की मंत्री थीं।
आजाद हिंद फौज में शामिल:
राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित लक्ष्मी स्वामीनाथन डॉक्टरी पेशे से निकलकर आजाद हिंद फौज में शामिल हो गई। अब लक्ष्मी सिर्फ डॉक्टर ही नहीं, बल्कि कैप्टन लक्ष्मी के नाम से भी लोगों के बीच जानी जाने लगीं। उनके नेतृत्व में आजाद हिंद फौज की महिला बटालियन रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट में कई जगहों पर अंग्रेजों से मोर्चा लिया और अंग्रेजों को बता दिया कि देश की नारियां चूड़ियां तो पहनती हैं, लेकिन समय आने पर वह बंदूक भी उठा सकती हैं और उनका निशाना पुरुषों की तुलना में कम नहीं होता।
तैयार की 500 महिलाओं की फौज:
सुभाष चंद्र बोस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सेना में रहते हुए उन्होंने कई सराहनीय काम किए। उनको बेहद मुश्किल जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उनके कंधों पर जिम्मेदारी थी फौज में महिलाओं को भर्ती होने के लिए प्रेरित करना और उन्हें फौज में भर्ती कराना। लक्ष्मी ने इस जिम्मेदारी को बखूबी अंजाम तक पहुंचाया। जिस जमाने में औरतों का घर से निकालना भी जुर्म समझा जाता था, उस समय उन्होंने 500 महिलाओं की एक फौज तैयार की जो एशिया में अपनी तरह की पहली विंग थी।
निधन:
कैप्टन डॉक्टर लक्ष्मी सहगल का निधन 98 वर्ष की आयु में 23 जुलाई, 2012 की सुबह 11.20 बजे कानपुर के हैलेट अस्पताल में हुआ था। उन्हें 19 जुलाई को दिल का दौरा पड़ने के बाद भर्ती कराया गया था, जहां उन्हें बाद में ब्रेन हैमरेज हुआ। लेकिन दो दिन बाद ही वह कोमा में चली गई। करीब पांच दिन तक जिंदगी और मौत से जूझने के बाद आखिरकार कैप्टन सहगल अपनी अंतिम जंग हार गई। स्वतंत्रता सेनानी, डॉक्टर, सांसद, समाजसेवी के रूप में यह देश उन्हें सदैव याद रखेगा। पिछले कई साल से वह कानपुर के अपने घर में बीमारों का इलाज करती रही थीं। उनकी इच्छानुसार उनका मृत शरीर कानपुर मेडिकल कॉलेज को दान कर दिया गया था। अत: उनकी इच्छा के मुताबिक, उनका अंतिम संस्कार नहीं होगा। जीवन भर गरीबों और मजदूरों के लिए संघर्ष करती रहीं लक्ष्मी सहगल की मौत के समय उनकी पुत्री सुभाषिनी अली उनके साथ ही थीं।

Sunday, 21 July 2013

पिएँ पसीने से बना पीने वाला पानी?


पसीना से पानी बनाने वाली मशीन
ये मशीन यूनिसेफ़ के एक अभियान के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए बनाई गई है







स्वीडन में एक ऐसी मशीन का इस्तेमाल हो रहा है जो पसीने से भीगे कपड़ों से नमी लेकर उसे पीने के पानी में तब्दील कर देती है.
ये उपकरण कपड़े को घुमाकर और गर्म करके उसमें से पसीना निकाल देता है, फिर उससे निकले वाष्प को एक ख़ास पतली झिल्ली से गुज़ारा जाता है. उस झिल्ली से सिर्फ़ पानी के ही अणु गुज़र सकते हैं.


ये उपकरण कपड़े को घुमाकर और गर्म करके उसमें से पसीना निकाल देता है, फिर उससे निकले वाष्प को एक ख़ास पतली झिल्ली से गुज़ारा जाता है. उस झिल्ली से सिर्फ़ पानी के ही अणु गुज़र सकते हैं.
इसे बनाने वालों के मुताबिक़ सोमवार को इस मशीन के लॉन्च के बाद से गोथेनबर्ग में लगभग 1000 लोग दूसरों का पसीना पी चुके हैं.
उन्होंने कहा है कि उस मशीन से बनने वाला पानी स्थानीय नल के पानी से ज़्यादा साफ़ है.

चाहिए ऐसा दंपत्ति जो मंगल का एकांत झेल सके

एक प्रयास ---------

मंगल

एक करोड़पति व्यक्ति के नेतृत्व में एक दल प्रयोग के लिए एक ऐसे अधेड़ दंपत्ति की तलाश कर रहा है जो मंगल ग्रह तक जा कर वापस आ सके.
इस दल का नेतृत्व पूर्व अंतरिक्ष पर्यटक रह चुके डेनिस टीटो कर रहे हैं. इंस्पिरेशन मार्स फाउंडेशन नाम के संस्थान का यह अभियान पूरी तरह से 'निजी पूँजी' से चलाया जाएगा. इनकी योजना है कि करीब क्लिक करेंडेढ़ साल चलने वाला यह अभियान जनवरी 2018 तक आरंभ हो जाए
इस अभियान के लिए जनवरी 2018 को इसलिए चुना गया है क्योंकि उस वक़्त पृथ्वी और मंगल अपनी अपनी कक्षाओं में सर्वाधिक पास होंगे.

क्यों चाहिए अधेड़

जो लोग इस अभियान में शामिल हैं उनमे से जेन पॉइंटर हैं जिन्होंने दो साल एक चारों तरफ से बंद संसार से कटे हुए वातावरण में बिताए थे.
जेन पॉइंटर ने बीबीसी से बात करते हुए बताया कि इस अभियान के लिए एक अधेड़ दंपत्ति की खोज इसलिए की जा रही है क्यों कि किसी पुराने दंपत्ति में ही इतना सामंजस्य होता है जितना कि दो साल तक अंतरिक्ष में दीन दुनिया से कटे रहते हुए एक साथ रहने के लिए चाहिए .
जेन पॉइंटर ने कहा " मैं अपने अनुभव से कह सकती हूँ कि अगर आपके पास कोई ऐसा है जिसके ऊपर आप पूरी तरह से भरोसा कर सकते हैं तो यह सामान्य बात नहीं है."
जेन पॉइंटर जिन्होंने अपने साथ प्रयोग में शामिल एक आदमी से बाद में विवाह भी कर लिया था वो कहती हैं कि जिस तरह की परिस्थितियों का सामना मंगल जाने वाले दंपत्ति को करना होगा वो बहुत ही चुनौतीपूर्ण होंगी. वो जोर देकर कहती हैं "इस काम के लिए ऐसे दंपत्ति की खोज की जा रही है जो मुश्किलों का सामना करते हुए भी एकदूसरे के साथ खुश रहें."
योजना के अनुसार एक अधेड़ दंपत्ति का चयन किया जायेगा जिनकी सेहत और प्रजनन क्षमता पर रेडिएशन का ज़्यादा प्रभाव नहीं पड़े.

कैसे होगा ?


जिन लोगों का चयन मंगल ग्रह जाने के लिए होगा उन्हें कड़ी ट्रेनिंग दी जाएगी और 
यात्रा के दौरान धरती पर मौजूद केंद्र से उन्हें पूरे समय मनोवैज्ञानिक सहायता भी उपलब्ध कराई जाएगी.
अंतरिक्ष इतिहास के विशेषज्ञ और लिंकन विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर क्रिस्टोफर रिले मानते हैं कि किसी दंपत्ति को भेजने का विचार अच्छा है. प्रोफ़ेसर रिले कहते हैं ' कोई ऐसा जोड़ा जिसके बच्चे हो चुके हों क्लिक करेंमंगलकी यात्रा पर जाए तो बेहतर है क्योंकि उनकी प्रजनन क्षमता पर इस यात्रा का बड़ा प्रभाव होगा."
इस अभियान के तहत मंगल ग्रह तक जा कर वहां नीचे उतरे बिना वापस आना होगा इसकी वजह से अभियान की कीमत में जबरदस्त कमी आ जाएगी.
इस अभियान के लिए जनवरी 2018 को इसलिए चुना गया है क्योंकि उस वक़्त पृथ्वी और मंगल अपनी अपनी कक्षाओं में सर्वाधिक पास होंगे.
इन दोनों ग्रहों की नज़दीकी की वजह से यह यात्रा डेढ़ साल में निपट जायेगी. अगर यह समय बीत जाता है तो इस यात्रा में दो से तीन साल तक का समय लग सकता है.

विशेषज्ञों की राय

ब्रिटिश नेशनल स्पेस सेंटर के अनु ओझा भी मानते हैं कि मंगल तक जाने और आने के विमान मौजूद है.
विमान के अन्दर यात्रीओं को बेहद कम में अपना गुज़ारा करना होगा . इस विमान में दो यात्रियों के लिए पांच दिन के भोजन का वजन करीब 1,360 किलो होगा. इसके अलावा इस विमान पर 28 किलोग्राम टॉयलेट पेपर भी होंगे.
ओझा के अनुसार अगर किसी को मंगल भेजना है तो इसके लिए विमान में कुछ तकनीकी सुधार करने होंगे मसलन पेशाब को शोधित कर पानी बनाने और रेडिएशन के प्रभावों को कम करने के क्षेत्र में.
डेनिस टीटो
इस अभियान के लिए डेनिस टीटो ने आरंभिक पूँजी लगाई है लेकिन इसके लिए कहीं और पैसे की ज़रुरत है.
ओझा कहते हैं "जब तक कुछ अरबपति एक या दो अरब डॉलर इस अभियान पर खर्च कर भूल जाने के लिए नहीं तैयार होते यह अभियान हो ही नहीं सकता 














Saturday, 29 June 2013

उत्तराखंड: पहाड़ में कूड़ा बीनने वाली विदेशी 'गार्बेज गर्ल'---वंदना शर्मा

एक प्रयास ---

जोडी अंडरहिल

उत्तराखंड में सेना के जवान जान जोखिम में डाल लोगो को 
बचाकर राहत शिविरों में ला रहे हैं, तो स्थानीय लोग देहरादून जैसी जगहों पर बड़ी संख्या में अपनों का इंतज़ार कर रहे लोगों की सेवा में लगे हैं.
खाना, पानी, ज़रूरी सामान.. पिछले एक हफ़्ते में यहाँ कूड़े का अंबार लग गया है. कूड़े का ये ढेर अब अपने आप में एक समस्या बन गया है.
ऐसे में स्थानीय लोगों ने मिलकर 'गार्बेज गर्ल' को फ़ोन लगाया. 
ये हैं ब्रिटेन की नागरिक जोडी अंडरहिल, जिन्हें स्थानीय लोग 'गार्बेज गर्ल' यानी कूड़ा बीनने वाली लड़की कहते हैं. 
बिना गंदगी की परवाह किए जोडी और उसके साथी पिछले कई दिनों से क्लिक करेंउत्तराखंडमें कूड़ा-करकट साफ़ करने के अभियान में लगे हैं, जो बाढ़ के बाद देहरादून के सहस्रधारा हेलीपैड के पास जमा हो रहा है.
बारिश की वजह से पूरे इलाक़ों में पानी और कीचड़ जमा है और कीचड़ से सने इसी पानी में से जोडी कूड़ा इकट्ठा करने का काम कर रही हैं.
जोडी कहती हैं कि हेलिपैड पर जब बाढ़ में फँसे हुए लोगों को लाया जाता है तो उनके चेहरे पर राहत का भाव देखने लायक होता है और वहाँ का दृश्य भावुक हो जाता है. मगर इस सबको एक तरफ कर जोडी की टीम का ध्यान केवल और केवल गंदगी साफ़ करने में लगा है.
मैंने जब उन्हें फोन किया तो वो देहरादून में हेलिपैड से कूड़े के बड़े-बड़े पैकेट जमा कर वापस लौट रही थीं.
जोडी अंडरहिल
जोडी अंडरहिल देहरादून में पिछले कुछ समय से साफ सफाई का काम कर रही हैं
इंग्लैंड छोड़ आई भारत---------------
जोडी इस इलाक़े में नई नहीं है. यूँ तो वह ब्रिटेन में पली-बढ़ी हैं लेकिन पिछले कई वर्षों से वह भारत में हिमालय के इलाक़ों में काम कर रही हैं. अपने साथियों के साथ मिलकर जोडी देहरादून और धर्मशाला में कूड़ा हटाने और लोगों को जागरूक करने का काम करती हैं. हाथों में दस्ताने पहने वो ख़ुद गंदगी भरे इलाकों में जाकर उसे साफ़ करती हैं.
अब जब उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा आई है तो जोडी भी मदद कार्यों में कूद पड़ी हैं. वह लोगों को बचाने या उनकी मदद का काम नहीं कर रहीं बल्कि ऐसे काम में लगी हैं जिसे कम ही लोग करना चाहते हैं.
हेलिपैड पर इतनी संख्या में जमा बाढ़ पीड़ित, उनके रिश्तेदार, राहतकर्मी पीछे बड़ी मात्रा में कूड़ा छोड़ जाते हैं जिसे अगर न हटाया जाए तो बीमारी का कारण बन सकता है. सरकारी संधाधन इसके लिए काफी नहीं हैं.
जोडी अंडरहिल
जोडी कहती हैं कि उन्हें ये काम करने में कोई शर्म महसूस नहीं होती
'कुदरत का निरादर'----------

जोडी इंग्लैंड की रहने वाली हैं. कुछ साल पहले भारत आई जोडी ने जब पहाड़ी इलाकों में गंदगी का स्तर देखा तो काफी दुखी हुईं, खासकर प्लास्टिक को लेकर जागरूकता का अभाव.
बस जोडी ने यहीं रह जाने का मन बना लिया और अपने स्तर पर गंदगी से सने इलाक़ों में साफ़ सफाई का काम करना शुरु किया. और साथ ही लोगों को जागरुक करने का भी. वह 'वेस्ट वॉरियर्स' नाम का संगठन चलाती हैं.
हाथ में झाड़ू लिए और दस्ताने पहने साफ़-सफ़ाई करते उन्हें देखा जा सकता है. धीरे-धीरे लोग उनके साथ जुड़ते रहे और वह छोटे से संगठन के ज़रिए ये काम कर रही हैं. इसीलिए लोग उन्हें 'गार्बेज गर्ल' के नाम से भी पुकारते हैं
अपना देश छोड़कर कई सालों से भारत के पहाड़ों को ही अपना घर बना चुकी जोडी उत्तराखंड की त्रासदी से बेहद दुखी हैं. वह कहती हैं, "हमने पर्यावरण का इतना निरादर किया है, अब कुदरत ने हमें चेतावनी दी है. इतने लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है. हमें ये प्रण लेना चाहिए कि इतने लोगों की जो जान गई, वो ज़ाया न जाए. कुछ तो हम सीखें इससे."
फिलहाल तो वो देहरादून में हेलिपैड के पास साफ-सफाई में लगी है लेकिन जोडी मानती हैं कि समस्या कहीं ज़्यादा गंभीर हैं.
जोडी कहती हैं, "अभी बचाव कार्य समाप्त हो जाएगा. जब बाकी इलाक़ों तक हम पहुँचना शुरू करेंगे तो पता चलेगा कि कितनी गाद, गंदगी ऊपर से बहकर जमा हो गई है. गाँव दोबारा बसाने हैं तो गंदगी साफ करनी होगी. ये चुनौतीपूर्ण काम होगा. हम इसी की तैयारी कर रहे हैं."
जोडी आगाह करते हुई कहती हैं, "बहुत से लोग मदद करने के लिए पहुँच रहे हैं लेकिन अभी न रास्ते हैं, न खाने-पीने का सामान. हमें योजनाबद्ध तरीके से काम करना होगा. अभी तो शुरुआत है. बहुत काम करना बाकी है. इसलिए मदद करने की इच्छा करने वाले समन्वय के साथ चलें."
पान की पीक, गंदे नालों का कूड़ा...किसी भी तरह की साफ़-सफ़ाई में जोडी को कोई शर्म महसूस नहीं होती. वे भारत में रहकर यही काम करते रहना चाहती हैं और फिलहाल उनकी प्राथमिकता उत्तराखंड है.-----

Wednesday, 19 June 2013

जिसने द्वितीय विश्वयुद्ध में तबाही मचाई बुधवार, 12 जून, 2013

एक प्रयास ---------
  • द्वितीय विश्वयुद्ध में इस्तेमाल जर्मन बमबर्षक विमान ड्रोनियर डीओ-17 के अवशेष को इंग्लिश चैनल से बाहर निकाला गया. इंग्लिश चैनल के केंट कोस्ट में इस विमान का अवशेष 70 सालों से पड़ा हुआ था.
  • विशेषज्ञों के मुताबिक ये विमान ड्रोनियर डीओ-17 बमबर्षक विमानों की सीरीज़ का बचा हुआ इकलौता विमान है. इस विमान का एक पंख नष्ट हो चुका है. इसे क्रेन के सहारे बाहर निकाला गया है.
  • विमान के मलबे का काफी कुछ हिस्सा गायब है. इस विमान को 26 अगस्त 1940 को निशाना बनाया गया था. चालक दल के चार सदस्यों में दो की मौत हो गई थी, जबकि पायलट सहित दो लोगों को युद्ध बंदी बनाया गया था.
  • इस विमान के मलबे को पहली बार गोताखोरों ने 2008 में तलाशा. इसके बाद नेशनल हेरिटेज़ मेमोरियल फंड (एनएचएमएफ) ने तीन लाख 45 हज़ार पाउंड का अनुदान देकर आरएएफ म्यूज़ियम को इस मलबे को बाहर निकालने का काम सौंपा. हालांकि ख़राब मौसम के चलते कई सप्ताह तक ये काम अटका रहा.
  • ड्रोनियर के प्रोपलर बताते हैं कि हादसे के दौरान विमान को कितना नुकसान पहुंचा होगा. दुर्घटनाग्रस्त विमान का प्रोपलर तस्वीर में दिख रहा है.
  • बताया जा रहा है कि विमान के मलबे को एक नाव के द्वारा आने वाले मंगलवार को रामसगेट बंदरगाह पर ले जाया जाएगा. मलबे को जंग लगने से बचाने के लिए साइट्रिक एसिड और सोडियम हाइड्रॉक्साइड के मिश्रण का छिड़काव करेंगे. इसके बाद इस विमान को उत्तरी लंदन स्थित आरएएफ म्यूज़ियम में प्रदर्शन के लायक बनाया जाएगा.

Tuesday, 11 June 2013

रोचक बातें अंतरिक्ष यात्रा से जुड़ी Sunday, September 11, 2011

एक प्रयास ---------

अंतरिक्षयात्रा के दौरान और उसके बाद अंतरिक्षयात्रियों को कई प्रकार के अनुभव होते हैं. ऐसे ही 7 अनुभवों के बारे में जानकारी.

अंतरिक्ष यात्रियों की शयन क्रिया---------

अंतरिक्षयात्रियों के लिए अंतरिक्ष में नींद लेना काफी कठीन हो जाता है. 
ऐसा इसलिए क्योंकि पृथ्वी की नजदीकी भ्रमण कक्षा में सूर्यास्त और सूर्योदय हर 90 मिनट में एक बार हो जाता है. 
इससे दिन और रात का समय ठीक ढंग से समझ पाना कठीन हो जाता है.

अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन में ग्रीनविच मीन टाइम को आधार माना जाता है और अंतरिक्षयात्री उसी समय के हिसाब से खुद को ढालते हैं. 
यह कठीन है परंतु उनको इसका अभ्यास कराया जाता है.

अंतरिक्षयात्रियों की लम्बाई बढ जाती है----------

चुँकि अंतरिक्ष में गुरूत्वाकर्षण बल का प्रभाव नहीं होता इसलिए अंतरिक्षयात्रियों की रीढ की हड्डी का कॉलम फैलता है और उनकी लम्बाई 5 से 8 सेमी तक बढ जाती है. 
पृथ्वी पर लौटने के बाद उन्हें पीठ दर्द की शिकायत होने की सम्भावना रहती है.

खर्राटों मे कमी---------------

एक अभ्यास से पता चला है कि अंतरिक्षयात्री जब अंतरिक्ष में नींद लेते हैं तो अपेक्षाकृत कम खर्राटे लेते हैं. 
ऐसा इसलिए क्योंकि खर्राटों के लिए गुरूत्वाकर्षणबल कुछ हद तक जिम्मेदार है और अंतरिक्ष में उसकी अनुपलब्धता खर्राटों मे कमी ला देती है.

एक वर्ष से अधिक समय तक अंतरिक्ष में------------

सुनिता विलियम्स जब 6 महीने के करीब अंतरिक्ष में रहकर वापस लौटी तो लोगों ने अचरज व्यक्त किया था, क्योंकि अंतरिक्ष में इतने लम्बे समय तक रहना आसान काम नहीं है. 
लेकिन अंतरिक्ष में सबसे लम्बे काल तक रहने का रिकार्ड सुनिता के नहीं बल्कि रूस के वलेरी पोलियाकोव के नाम है. 
उन्होनें मीर स्पेस स्टेशन में 438 दिन बिताए थे.

अंतरिक्ष में हुई कुल मौतें कितनी-------?

सिर्फ 3. वर्ष 2004 तक कुल 439 अंतरिक्षयात्री अंतरिक्ष की सैर कर चुके हैं. 
11 सम्भावित अंतरिक्षयात्रियों की मौत प्रशिक्षण के दौरान हुई है और उड्डयन के दौरान कुल 18 मौतें हुई है.

परंतु तकनीकी दृष्टि से देखें तो मात्र 4 मौते ही अंतरिक्ष में हुई है. 
एफ.आई.ए. के अनुसार पृथ्वी की सतह से 100 किमी ऊपर अंतरिक्ष की सीमा है. 
इस सीमा से बाहर सोयुज़ 11 अंतरिक्षयान की दुर्घटना हुई थी. 
तीन अंतरिक्षयात्री ज्योर्जी डोब्रोवोल्स्की, विक्टर पेटासायेव और व्लादिस्लेव वोल्कोव मारे गए थे.

पृथ्वी के वातावरण से सामंजस्य बिठाना कठिन---------

अंतरिक्षयात्रा के बाद लौटने वाले अंतरिक्षयात्रियों के लिए पृथ्वी के वातावरण से तालमेल बिठाना कठीन होने लगता है. 
 कठिन प्रशिक्षण प्राप्त ये अंतरिक्षयात्री भी परेशानी का सामना करते हैं. 
कई रूसी अंतरिक्षयात्री स्वीकार करते हैं कि पृथ्वी पर लौटने के महीनों बाद भी वे कॉफी के मग को हवा में छोड़ देते थे!

स्पंज स्नान ही बेहतर-------------

स्कायलेब, मीर जैसे स्पेस स्टेशन शावर की सुविधा से युक्त होते हैं. 
लेकिन अंतरिक्षयात्री अधिकतर समय स्पंज बाथ पर ही निर्भर रहते हैं 
ताकी पानी का बचाव किया जा सके.

नासा अब ऐसे सिस्टम पर कार्य कर रहा है जिससे पानी रिसायकल होता रहेगा. 
इसके बाद अंतरिक्षयात्रियों के लिए मजे से स्नान करना सम्भव होगा.

Sunday, 9 June 2013

एक लबादा जो आग से रखे महफूज़

एक प्रयास --------जिस चीज़ को आज ये वैज्ञानिक  अंजाम देने जा रहे हैं हमने देखी नहीं लेकिन सुना अवश्य है सालों पहले भारत में हिरन्यकश्यप ने इसी आग से बचाने वाले लबादे को अपनी बहन होलिका को ओढाकर जलती आग में बिठा दिया था जिस से वो जलने से बच सकती थी कहना ना होगा भारत तकनीकी स्तर पर सालों पहले भी बहुत आगे था 
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अनुसंधानकर्ताओं ने एक ऐसी लबादे सरीखी चीज़ का परीक्षण किया जो किसी वस्तु को आग से छुपाकर उसे सुरक्षित रख सकेगी.
वैज्ञानिक इसे ‘थर्मल इनविजिबिलिटी क्लोक’ नाम से पुकार रहे हैं. यह पहली बार हुआ है कि एक ऐसी डिवाइस बनाई गई है जो किसी वस्तु को ऊष्मा से भी बचा सकेगी.
इसका नमूना ‘फिज़ीकल रिव्यू लेटर्स’ में जारी किया गया है.
जारी किए गए नमूने का सैंद्धांतिक विचार साल 2012 में सबसे पहले फ्रांस के अनुसंधनकर्ताओं ने दिया था.
यह विचार अब हकीकत में बदल गया है.
तांबे और सिलिकॉन से बनी इस चीज को ‘पीडीएमएम’ का नाम दिया गया है.
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Friday, 7 June 2013

फिर पनप रहे हैं सदियों पहले बर्फ में दबे पौधे

एक प्रयास ---------




साल 1550 से 1850 तक के समय को 
लिटिल आइस एज के नाम से जाना जाता है

वैज्ञानिकों का मानना है कि 
सदियों पहले लिटिल आइस एज या 
क़रीब साढ़े चार सौ साल पहले 
ग्लेशियर के नीचे जम गए 
क्लिक करेंपौधे फिर से पनप रहे हैं.
चार सौ साल पुराने इन पौधों को ब्रायोफ़ाइट्स के नाम से जाना जाता है. 

Tuesday, 4 June 2013

मक्का की दिशा बताने वाली जानमाज़ 24 जुलाई, 2012

एक प्रयास ---------

इस्लाम धर्म के मानने वाले अज़ान 
सुनते ही दिन में पांच बार नमाज़ पढ़ने के 
लिए मक्का की ओर मुह करते हैं.
लेकिन जब आप मस्जिद में ना हों, और
 ना ही किसी जानी-पहचानी जगह पर 
तब आप क्या करेंगे?
ऐसे में कुछ लोग सितारों की तरफ़ देखते हैं,
 कुछ कंपास का प्रयोग करते हैं तो 
आजकल कुछ स्मार्ट फ़ोन का सहारा लेते हैं.
लेकिन लंदन स्थित तुर्की मूल के डिज़ाइनर 
ने इस समस्या का हल तकनीक से निकाला है. 
उन्होंने नमाज़ पढ़ने के लिए एक मैट बनाया है 
जिसे अल-सजदा नाम दिया है.



जैसे ही इसे मक्का की दिशा पता चलती है 
ये चमक उठता है.
सोनेर ओजेंक नाम के इस डिज़ाइनर ने  
बताया, “मैं उड़ने वाले कार्पेट के बारे में सोच रहा था. 
फिर हमें लगा कि इसे कैसे बनाया जाए..
और इसी से प्रेयर मैट का आइडिया आया. 
अल-सजदा का अहम बात ये है कि 
आपको इसके अलावा किसी अन्य 
सहायता की ज़रुरत नहीं पड़ती.”
सोनेर ओज़ेंक का दावा है कि 
अल-सजदा से नमाज पढ़ना 
आसान हो जाता है.
अल-सजदा अभी बाज़ार में नहीं आया है 
क्योंकि ओजेंक पैसों की तलाश में है 
ताकि इसे बाज़ार में उतारा जाए.

Friday, 31 May 2013

October 21, 2011,वैज्ञानिकों ने बनाया ‘उड़ने वाला जादुई क़ालीन’

एक प्रयास --------- 

जादुई क़ालीन पर बैठकर देश-दुनिया की सैर करने का सपना 
अब बचपन की यादों से निकलकर हक़ीकत बनने जा रहा है.
प्रिंसटन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने प्लास्टिक का 
इस्तेमाल कर प्रयोगशाला में उड़ने वाला एक ‘छोटा क़ालीन’ 
बनाने में सफलता हासिल की है.

दस सेंटीमीटर के एक पारदर्शी प्लास्टिक के टुकड़े पर 
किए गए इस प्रयोग में बिजली की तरंगों और हवा 
के ज़ोर का इस्तेमाल किया गया.
इस टुकड़े को जब विद्युत तरंगों और वायु की ऊर्जा 
से धकेला गया तो यह ‘छोटा-क़ालीन’ एक 
सेंटीमीटर प्रति सेकेंड की रफ़्तार से आगे बढ़ने लगा.
वैज्ञानिकों का मानना है

कि इस क़ालीन के पहले प्रारुप में बदलाव और 
सुधारों के ज़रिए इसे एक मीटर प्रति सेकेंड की गति से उड़ने के लायक बनाया जा सकता है.

वैज्ञानिकों का कहना है कि इस प्रयोग के पूरी तरह सफल होने 
और इस क़ालीन के तैयार होने पर इसे 
मंगल जैसे ग्रहों की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन और 
धूलभरे-धुंधले वातावरण में इस्तेमाल किया जा सकता है.

ऐसी जगहों पर आमतौर से अंतरिक्ष यान या 
विमान चल नहीं पाते और ख़राब हो जाते हैं.

Wednesday, 29 May 2013

एवरेस्ट फ़तह करने का वो ऐतिहासिक कारनामा

एक प्रयास ---------
  • दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट को 
    सर एडमंड हिलेरी और शेरपा तेनज़िंग नोर्गे 
    की जोड़ी ने आज से साठ साल पहले 
    बौना साबित कर दिया था. 
    ये दोनों एवरेस्ट की चोटी पर 29 मई, 1953 को पहुंचे थे. 
    एवरेस्ट के शिखर पर पहुंचने के बाद 
    ये कामयाबी की मुस्कान है.
  • सर एडमंड हिलेरी और शेरपा तेनज़िंग नोर्गे की जोड़ी 
    जब एवरेस्ट के शिखर पर पहुंची तब 
    दिन के साढ़े ग्यारह बजे रह थे. 
    तस्वीर में दक्षिण पूर्वी तरफ से 
    27,300 फ़ीट की ऊंचाई पर नज़र आ रहे हैं.
  • एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचने के बाद दोनों ने क्या क्या होगा. 
    ये सवाल आपके मन में तो नहीं आ रहा है? 
    सर एडमंड हिलेरी तो शिखर पर पहुंचने के 
    बाद तस्वीर उतारने लगे 
    जबकि शेरपा तेनज़िंग ने चोटी पर ब्रिटेन,
     नेपाल, संयुक्त राष्ट्र और भारत का राष्ट्रीय झंडा फहराया.
  • शेरपा तेनज़िंग नोर्गे ने एवरेस्ट की चोटी पर 
    कुछ मिठाई और कुछ बिस्कुट चढ़ाए. 
    क्योंकि बौद्ध धर्म के अनुयायी कुछ ना 
    कुछ भगवान को अर्पित करते हैं. 
    इस चित्र में दोनों चढ़ाई के रास्ते में पश्चिमी सिरे 
    के कैंप चार में चाय पीते नज़र आ रहे हैं.
  • सर एडमंड हिलेरी और शेरपा तेनज़िंग नोर्गे 
    कितनी देर तक एवरेस्ट की चोटी पर रूके होंगे? 
    दोनों महज 15 मिनट ही चोटी पर रूक पाए. 
    क्योंकि दोनों को ऑक्सीज़न की कमी महसूस होने लगी थी. 
    ये एवरेस्ट की चोटी से पश्चिमी चढ़ाई के नीचे की तस्वीर है.
  • सर एडमंड हिलेरी और शेरपा तेनज़िंग नोर्गे की 
    ये तस्वीर 28 मई, 1953 की है. 
    यानि चोटी पर पहुंचने से एक दिन पहले की. 
    ये दोनों ख़ासे किस्मत वाले भी रहे. 
    क्योंकि महज दो दिन पहले ही एक दूसरी टीम एवरेस्ट की 
    चोटी से महज सौ मीटर की दूरी तक पहुंच चुकी थी, 
    लेकिन उन्हें ऑक्सीज़न सिस्टम के 
    नाकाम होने की वजह से वहीं से लौटना पड़ा था.
  • सर एडमंड हिलेरी और शेरपा तेनज़िंग नोर्गे का अभियान 
    12 अप्रैल, 1953 को शुरू हुआ था. उनकी कामयाबी की घोषणा 
    2 जून को ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ 
    द्वितीय के राज्याभिषेक के मौके पर हुई.
  • इस अभियान के दौरान बेस कैंपों के बीच में रेडियो मास्ट 
    यानि रेडियो तरंगों को कैच करने वाले खंभे भी लगाए गए. 
    इससे वाकी टाकी पर बात करना संभव हो पाया था और वो 
    महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय के 
    राज्याभिषेक का प्रसारण भी सुन पाए थे.
  • इस तस्वीर में एक टेंट में बैठे लोग महारानी 
    एलिज़ाबेथ द्वितीय के 
    राज्याभिषेक का रेडियो प्रसारण सुन रहे हैं.
  • एवरेस्ट पर चढ़ाई अभियान के 
    दौरान सात कैंप बनाए गए थे 
    ताकि पर्वतारोहण वाले दल के 
    लोगों को हालात से तालमेल बिठाने में मदद मिल सके.
  • इस अभियान में शेरपाओं के एक दल ने जरूरी 
    सामानों को बेस कैंप तक पहुंचाया. 
    इस चित्र के एकदम दायीं 
    ओर ल्हो ला ग्लेशियर दिख रहा है. 
    इसके दूसरी ओर तिब्बत है. 
    इसे देखकर इसपर चढ़ाई आसान लगती है 
    लेकिन ऊपर से लगातार फिसलती 
    बर्फ के चलते यह नामुमिकन चढ़ाई है.
  • 1953 में एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ने वाले दल के साथ सामान 
    ढोने और रास्ता बताने वाले सैकड़ों 
    शेरपाओं को दल भी शामिल था. 
    पीछे की पंक्ति में( बाएं से दाएं) खड़े हैं 
    स्टुबार्ट, डावा तेनज़िंग, इवांस, वेली, 
    हिलेरी, हंट, तेनज़िंग, लोवे, वार्ड, 
    बुर्डिलन, बैंड, पॉग, ग्रेगरी, नोयास. बाएं से बैठे हुए हैं - 
    टोपकी, थंडुप, अंग नामाज्ञ्याल, 
    आंग तेनज़िंग, डावा थंडुप, पीम्बा, 
    पासंग डावा, पहू दोर्ज़े, आंग ताम्बा, 
    और आंग नायमा. इस तस्वीर में 
    कई लोग शामिल नहीं है. जिनमें 
    अन्नूलू, दा नामज्ञ्याल, गोंपू और वेस्टमैकट).
  • 1953 का ये अभियान एवरेस्ट पर 
    चढ़ाई करने के उद्देश्य से नौवां अभियान था. 
    इस तस्वीर में सर एडमंड हिलेरी 
    एक सीढ़ी पुल पार करते दिख रहे हैं.
  • इस अभियान का नेतृत्व कर्नल जॉन हंट ने किया था. 
    इसका आयोजन और वित्तीय प्रबंध ज्वाइंट 
    हिमालयन कमेटी की ओर से हुआ था. 
    सभी तस्वीरें रॉयल ज्योग्राफ़िकल सोसायटी 
    और आईबीजी के सौजन्य से ली गई हैं.