एक प्रयास ---------
कैप्टन डॉ. लक्ष्मी सहगल महान स्वतंत्रता सेनानी और आजाद हिंद फौज की अधिकारी थीं।
वह आजाद हिंद सरकार में महिला मामलों की मंत्री भी रहीं। उनकी पुण्यतिथि पर कुछ यूं पेश हैं उन्हें श्रद्धांजलि..
जीवन परिचय:
भारत की आजादी में अहम भूमिका अदा करने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सुभाष चंद्र बोस की सहयोगी रहीं कैप्टन लक्ष्मी सहगल का जन्म 24 अक्टूबर, 1914 को मद्रास (अब चेन्नई) में हुआ था। शादी से पहले उनका नाम लक्ष्मी स्वामीनाथन था। पिता का नाम डॉ. एस. स्वामीनाथन और माता का नाम एवी अमुक्कुट्टी (अम्मू) था। पिता मद्रास उच्च न्यायालय के जाने माने वकील थे। माता अम्मू स्वामीनाथन एक समाजसेवी और केरल के एक जाने-माने स्वतंत्रता सेनानी परिवार से थीं, जिन्होंने आजादी के आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। यह एक तमिल परंपरावादी परिवार था। लक्ष्मी सहगल शुरुआती दिनों से ही भावुक और दूसरों की मदद करने वाली रहीं।
शिक्षा और आरंभिक जीवन:
कैप्टन लक्ष्मी पढ़ाई में कुशल थीं। वर्ष 1930 में पिता के देहावसान का साहसपूर्वक सामना करते हुए 1932 में लक्ष्मी ने विज्ञान में स्नातक परीक्षा पास की। कैप्टन सहगल शुरू से ही बीमार गरीबों को इलाज के लिए परेशान देखकर दुखी हो जाती थीं। इसी के मद्देनजर उन्होंने गरीबों की सेवा के लिए चिकित्सा पेशा चुना और 1938 में मद्रास मेडिकल कालेज से एमबीबीएस की डिग्री हासिल की। उसके बाद उन्होंने डिप्लोमा इन गाइनिकोलॉजी भी किया और अगले वर्ष 1939 में वह महिला रोग विशेषज्ञ बनीं। पढ़ाई समाप्त करने के दो वर्ष बाद लक्ष्मी को विदेश जाने का अवसर मिला और वह 1940 में सिंगापुर चली गई। जहां उन्होंने गरीब भारतीयों और मजदूरों (माइग्रेंटस लेबर) के लिए एक चिकित्सा शिविर लगाया और उनका इलाज किया।
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान:
सिंगापुर में उन्होंने न केवल भारत से आए अप्रवासी मजदूरों के लिए नि:शुल्क चिकित्सालय खोला, बल्कि भारत स्वतंत्रता संघ की सक्रिय सदस्या भी बनीं। वर्ष 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब अंग्रेजों ने सिंगापुर को जापानियों को समर्पित कर दिया, तब उन्होंने घायल युद्धबंदियों के लिए काफी काम किया। उसी समय ब्रिटिश सेना के बहुत से भारतीय सैनिकों के मन में अपने देश की स्वतंत्रता के लिए काम करने का विचार उठ रहा था।
नेताजी से मुलाकात:
विदेश में मजदूरों की हालत और उनके ऊपर हो रहे जुल्मों को देखकर उनका दिल भर आया। उन्होंने निश्चय किया कि वह अपने देश की आजादी के लिए कुछ करेंगी। लक्ष्मी के दिल में आजादी की अलख जग चुकी थी, इसी दौरान देश की आजादी की मशाल लिए नेता जी सुभाष चंद्र बोस दो जुलाई, 1943 को सिंगापुर आए तो डॉ. लक्ष्मी भी उनके विचारों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकीं और अंतत: करीब एक घंटे की मुलाकात के बीच लक्ष्मी ने यह इच्छा जता दी कि वह उनके साथ भारत की आजादी की लड़ाई में उतरना चाहती हैं। लक्ष्मी के भीतर आजादी का जज्बा देखने के बाद नेताजी ने उनके नेतृत्व में रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट बनाने की घोषणा कर दी, जिसमें वह वीर नारियां शामिल की गई जो देश के लिए अपनी जान दे सकती थीं। 22 अक्टूबर, 1943 में डॉ. लक्ष्मी ने रानी झांसी रेजीमेंट में कैप्टन पद पर कार्यभार संभाला। अपने साहस और अद्भुत कार्य की बदौलत बाद में उन्हें कर्नल का पद भी मिला, जो एशिया में किसी महिला को पहली बार मिला था। लेकिन लोगों ने उन्हें कैप्टन लक्ष्मी के रूप में ही याद रखा। डॉ. लक्ष्मी अस्थाई आजाद हिंद सरकार की कैबिनेट में पहली महिला सदस्य बनीं। वह आजाद हिंद फौज की अधिकारी तथा आाजाद हिंद सरकार में महिला मामलों की मंत्री थीं।
आजाद हिंद फौज में शामिल:
राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित लक्ष्मी स्वामीनाथन डॉक्टरी पेशे से निकलकर आजाद हिंद फौज में शामिल हो गई। अब लक्ष्मी सिर्फ डॉक्टर ही नहीं, बल्कि कैप्टन लक्ष्मी के नाम से भी लोगों के बीच जानी जाने लगीं। उनके नेतृत्व में आजाद हिंद फौज की महिला बटालियन रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट में कई जगहों पर अंग्रेजों से मोर्चा लिया और अंग्रेजों को बता दिया कि देश की नारियां चूड़ियां तो पहनती हैं, लेकिन समय आने पर वह बंदूक भी उठा सकती हैं और उनका निशाना पुरुषों की तुलना में कम नहीं होता।
तैयार की 500 महिलाओं की फौज:
सुभाष चंद्र बोस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सेना में रहते हुए उन्होंने कई सराहनीय काम किए। उनको बेहद मुश्किल जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उनके कंधों पर जिम्मेदारी थी फौज में महिलाओं को भर्ती होने के लिए प्रेरित करना और उन्हें फौज में भर्ती कराना। लक्ष्मी ने इस जिम्मेदारी को बखूबी अंजाम तक पहुंचाया। जिस जमाने में औरतों का घर से निकालना भी जुर्म समझा जाता था, उस समय उन्होंने 500 महिलाओं की एक फौज तैयार की जो एशिया में अपनी तरह की पहली विंग थी।
निधन:
कैप्टन डॉक्टर लक्ष्मी सहगल का निधन 98 वर्ष की आयु में 23 जुलाई, 2012 की सुबह 11.20 बजे कानपुर के हैलेट अस्पताल में हुआ था। उन्हें 19 जुलाई को दिल का दौरा पड़ने के बाद भर्ती कराया गया था, जहां उन्हें बाद में ब्रेन हैमरेज हुआ। लेकिन दो दिन बाद ही वह कोमा में चली गई। करीब पांच दिन तक जिंदगी और मौत से जूझने के बाद आखिरकार कैप्टन सहगल अपनी अंतिम जंग हार गई। स्वतंत्रता सेनानी, डॉक्टर, सांसद, समाजसेवी के रूप में यह देश उन्हें सदैव याद रखेगा। पिछले कई साल से वह कानपुर के अपने घर में बीमारों का इलाज करती रही थीं। उनकी इच्छानुसार उनका मृत शरीर कानपुर मेडिकल कॉलेज को दान कर दिया गया था। अत: उनकी इच्छा के मुताबिक, उनका अंतिम संस्कार नहीं होगा। जीवन भर गरीबों और मजदूरों के लिए संघर्ष करती रहीं लक्ष्मी सहगल की मौत के समय उनकी पुत्री सुभाषिनी अली उनके साथ ही थीं।
बहुत उम्दा जानकारी मिली.
ReplyDeleteरामराम.
सुन्दर प्रस्तुति ....!!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (24-07-2013) को में” “चर्चा मंच-अंकः1316” (गौशाला में लीद) पर भी होगी!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर प्रस्तुति अरुणा जी
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