Friday 31 May 2013

October 21, 2011,वैज्ञानिकों ने बनाया ‘उड़ने वाला जादुई क़ालीन’

एक प्रयास --------- 

जादुई क़ालीन पर बैठकर देश-दुनिया की सैर करने का सपना 
अब बचपन की यादों से निकलकर हक़ीकत बनने जा रहा है.
प्रिंसटन विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने प्लास्टिक का 
इस्तेमाल कर प्रयोगशाला में उड़ने वाला एक ‘छोटा क़ालीन’ 
बनाने में सफलता हासिल की है.

दस सेंटीमीटर के एक पारदर्शी प्लास्टिक के टुकड़े पर 
किए गए इस प्रयोग में बिजली की तरंगों और हवा 
के ज़ोर का इस्तेमाल किया गया.
इस टुकड़े को जब विद्युत तरंगों और वायु की ऊर्जा 
से धकेला गया तो यह ‘छोटा-क़ालीन’ एक 
सेंटीमीटर प्रति सेकेंड की रफ़्तार से आगे बढ़ने लगा.
वैज्ञानिकों का मानना है

कि इस क़ालीन के पहले प्रारुप में बदलाव और 
सुधारों के ज़रिए इसे एक मीटर प्रति सेकेंड की गति से उड़ने के लायक बनाया जा सकता है.

वैज्ञानिकों का कहना है कि इस प्रयोग के पूरी तरह सफल होने 
और इस क़ालीन के तैयार होने पर इसे 
मंगल जैसे ग्रहों की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन और 
धूलभरे-धुंधले वातावरण में इस्तेमाल किया जा सकता है.

ऐसी जगहों पर आमतौर से अंतरिक्ष यान या 
विमान चल नहीं पाते और ख़राब हो जाते हैं.

Wednesday 29 May 2013

एवरेस्ट फ़तह करने का वो ऐतिहासिक कारनामा

एक प्रयास ---------
  • दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट को 
    सर एडमंड हिलेरी और शेरपा तेनज़िंग नोर्गे 
    की जोड़ी ने आज से साठ साल पहले 
    बौना साबित कर दिया था. 
    ये दोनों एवरेस्ट की चोटी पर 29 मई, 1953 को पहुंचे थे. 
    एवरेस्ट के शिखर पर पहुंचने के बाद 
    ये कामयाबी की मुस्कान है.
  • सर एडमंड हिलेरी और शेरपा तेनज़िंग नोर्गे की जोड़ी 
    जब एवरेस्ट के शिखर पर पहुंची तब 
    दिन के साढ़े ग्यारह बजे रह थे. 
    तस्वीर में दक्षिण पूर्वी तरफ से 
    27,300 फ़ीट की ऊंचाई पर नज़र आ रहे हैं.
  • एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचने के बाद दोनों ने क्या क्या होगा. 
    ये सवाल आपके मन में तो नहीं आ रहा है? 
    सर एडमंड हिलेरी तो शिखर पर पहुंचने के 
    बाद तस्वीर उतारने लगे 
    जबकि शेरपा तेनज़िंग ने चोटी पर ब्रिटेन,
     नेपाल, संयुक्त राष्ट्र और भारत का राष्ट्रीय झंडा फहराया.
  • शेरपा तेनज़िंग नोर्गे ने एवरेस्ट की चोटी पर 
    कुछ मिठाई और कुछ बिस्कुट चढ़ाए. 
    क्योंकि बौद्ध धर्म के अनुयायी कुछ ना 
    कुछ भगवान को अर्पित करते हैं. 
    इस चित्र में दोनों चढ़ाई के रास्ते में पश्चिमी सिरे 
    के कैंप चार में चाय पीते नज़र आ रहे हैं.
  • सर एडमंड हिलेरी और शेरपा तेनज़िंग नोर्गे 
    कितनी देर तक एवरेस्ट की चोटी पर रूके होंगे? 
    दोनों महज 15 मिनट ही चोटी पर रूक पाए. 
    क्योंकि दोनों को ऑक्सीज़न की कमी महसूस होने लगी थी. 
    ये एवरेस्ट की चोटी से पश्चिमी चढ़ाई के नीचे की तस्वीर है.
  • सर एडमंड हिलेरी और शेरपा तेनज़िंग नोर्गे की 
    ये तस्वीर 28 मई, 1953 की है. 
    यानि चोटी पर पहुंचने से एक दिन पहले की. 
    ये दोनों ख़ासे किस्मत वाले भी रहे. 
    क्योंकि महज दो दिन पहले ही एक दूसरी टीम एवरेस्ट की 
    चोटी से महज सौ मीटर की दूरी तक पहुंच चुकी थी, 
    लेकिन उन्हें ऑक्सीज़न सिस्टम के 
    नाकाम होने की वजह से वहीं से लौटना पड़ा था.
  • सर एडमंड हिलेरी और शेरपा तेनज़िंग नोर्गे का अभियान 
    12 अप्रैल, 1953 को शुरू हुआ था. उनकी कामयाबी की घोषणा 
    2 जून को ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ 
    द्वितीय के राज्याभिषेक के मौके पर हुई.
  • इस अभियान के दौरान बेस कैंपों के बीच में रेडियो मास्ट 
    यानि रेडियो तरंगों को कैच करने वाले खंभे भी लगाए गए. 
    इससे वाकी टाकी पर बात करना संभव हो पाया था और वो 
    महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय के 
    राज्याभिषेक का प्रसारण भी सुन पाए थे.
  • इस तस्वीर में एक टेंट में बैठे लोग महारानी 
    एलिज़ाबेथ द्वितीय के 
    राज्याभिषेक का रेडियो प्रसारण सुन रहे हैं.
  • एवरेस्ट पर चढ़ाई अभियान के 
    दौरान सात कैंप बनाए गए थे 
    ताकि पर्वतारोहण वाले दल के 
    लोगों को हालात से तालमेल बिठाने में मदद मिल सके.
  • इस अभियान में शेरपाओं के एक दल ने जरूरी 
    सामानों को बेस कैंप तक पहुंचाया. 
    इस चित्र के एकदम दायीं 
    ओर ल्हो ला ग्लेशियर दिख रहा है. 
    इसके दूसरी ओर तिब्बत है. 
    इसे देखकर इसपर चढ़ाई आसान लगती है 
    लेकिन ऊपर से लगातार फिसलती 
    बर्फ के चलते यह नामुमिकन चढ़ाई है.
  • 1953 में एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ने वाले दल के साथ सामान 
    ढोने और रास्ता बताने वाले सैकड़ों 
    शेरपाओं को दल भी शामिल था. 
    पीछे की पंक्ति में( बाएं से दाएं) खड़े हैं 
    स्टुबार्ट, डावा तेनज़िंग, इवांस, वेली, 
    हिलेरी, हंट, तेनज़िंग, लोवे, वार्ड, 
    बुर्डिलन, बैंड, पॉग, ग्रेगरी, नोयास. बाएं से बैठे हुए हैं - 
    टोपकी, थंडुप, अंग नामाज्ञ्याल, 
    आंग तेनज़िंग, डावा थंडुप, पीम्बा, 
    पासंग डावा, पहू दोर्ज़े, आंग ताम्बा, 
    और आंग नायमा. इस तस्वीर में 
    कई लोग शामिल नहीं है. जिनमें 
    अन्नूलू, दा नामज्ञ्याल, गोंपू और वेस्टमैकट).
  • 1953 का ये अभियान एवरेस्ट पर 
    चढ़ाई करने के उद्देश्य से नौवां अभियान था. 
    इस तस्वीर में सर एडमंड हिलेरी 
    एक सीढ़ी पुल पार करते दिख रहे हैं.
  • इस अभियान का नेतृत्व कर्नल जॉन हंट ने किया था. 
    इसका आयोजन और वित्तीय प्रबंध ज्वाइंट 
    हिमालयन कमेटी की ओर से हुआ था. 
    सभी तस्वीरें रॉयल ज्योग्राफ़िकल सोसायटी 
    और आईबीजी के सौजन्य से ली गई हैं.

राष्ट्रीय धरोहर है ये बचत खाता

एक प्रयास ---------
पटना। क्या महज 1,508 रुपये वाला कोई बचत खाता जिसमें वर्षो से कोई लेन देन न हुआ हो, 
किसी बैंक के लिए गौरव का विषय बन सकता है? 
जी हां, ऐसा हो सकता है अगर यह खाता देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद का हो तो।
पंजाब नेशनल बैंक की स्थानीय एक्जीबिशन रोड शाखा में डा. राजेंद्र प्रसाद का एक खाता है 
जिसे बैंक के अधिकारियों ने दिवंगत राष्ट्रपति के प्रति सम्मान 
व्यक्त करने के लिए उनके निधन के दशकों बाद भी बंद नहीं किया है। 
बैंक की शाखा के मुख्य प्रबंधक शलेश रंजन सिंह ने बताया
 कि पीएनबी के लिए राजेंद्र प्रसाद का बचत खाता राष्ट्रीय धरोहर है। 
हम इसे भावी पीढि़यों के लिए बरकरार रखना चाहते है। 
सिंह ने बताया कि बैंक की शाखा को नई दिल्ली स्थित मुख्यालय की ओर से निर्देश है
 कि इस खाते को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में चालू रखा जाए।
 उन्होंने कहा कि जब तक संभव होगा बैंक इस खाते को सक्रिय रखेगा। 
वर्ष 2007 में इस खाते में 1,432 रुपये थे। 
बैंक ने इसमें ब्याज जोड़ दिया है। 
इसके बाद इसकी राशि बढ़कर 1,508 हो गई है। 
एक अन्य बैंक अधिकारी का कहना था कि 
आज के दौर जब राजनीतिज्ञ लाखों की संपत्ति की घोषणा करते है 
ऐसे में राजेंद्र प्रसाद के खाते में मौजूद राशि 
उनकी ईमानदारी और सार्वजनिक जीवन के प्रति उनकी निष्ठा दर्शाती है।

Sunday 26 May 2013

6, जनवरी ,2012 ईस्ट इंडिया कंपनी पर भी लहराया तिरंगा

एक प्रयास -------

लंदन। जलियांवाला बाग़ में 13 अप्रैल 1919 में 
जनरल डायर ने निहत्थे भारतीयों को भून डाला 
और उसके ठीक 21 साल बाद 
ऊधम सिंह ने सन् 1940 में लंदन में जाकर बदला लिया 
और जनरल डायर की हत्या कर जलियांवाला बाग़ का हिसाब पूरा कर दिया।

 मलिका नूरजहां ने 1516 में अपने 
पति बादशाह जहांगीर की शाही मुहर लगा कर 
ईस्ट इंडिया कंपनी को सूरत में फ़ैक्टरी लगाने की अनुमति देकर 
मुग़ल सल्तनत के पतन पर मुहर लगाई थी।

इसके बाद यही ईस्ट इंडिया कंपनी पूरे भारत पर राज करने लगती है।

ठीक इसी तरह मुंबई का संजीव मेहता नाम का एक युवक 
लंदन में आकर गुमनामी के अंधेरे में डूबी इस कंपनी का पता लगाता है 
और पांच साल की लगातार मेहनत के बाद उस कंपनी को 
ख़रीद कर अपने नाम करने में सफल होता है।

संजीव मेहता आज भारत को 
63वें स्वतंत्रता दिवस पर तोहफ़े के रूप में भारत की 
जनता को ईस्ट इंडिया कंपनी पेश करते हैं। 

ईस्ट इंडिया के क़रीब तीस से चालीस मालिक थे।
संजीव मेहता ने एक-एक को ढूंढ कर 
कंपनी के मालिक़ाना हक़ अपने नाम करवाए। 
अगले साल संजीव ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत लाने की योजना बना रहे हैं।

यानि कि चक्र पूरा होगा और यह कंपनी 
इस बार अपने भारतीय पैरों के साथ दोबारा भारत पहुंचेगी।
ये वही ईस्ट इंडिया है जो अंग्रेज़ों के राज के दौरान कभी 
18वीं और 19वीं सदी में भारत पर हुकूमत चलाती थी 
और विश्व में करीब 50 फ़ीसदी कारोबार पर इसका कब्ज़ा था।

भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का यथोचित
 विकास टामस रो के आगमन से आरंभ हुआ, 
जब उसके व्यवसायिक केंद्र सूरत, आगरा, 
अहमदाबाद तथा भड़ोच में स्थापित हुए।

तत्पश्चात् बड़ी योजना और पूर्ण विधि से अन्य केंद्रों की स्थापना हुई। 
मुख्य केंद्र समुद्री तटों पर ही बसे। उनकी किलेबंदी भी की गई। 
इस प्रकार मुगल दखलअंदाजी से वे दूर रह सकते थे। 
संकट के समय उन्हें समुद्री सहयोग सुलभ था।

संजीव मेहता बताते हैं- 'ईस्ट इंडिया कंपनी को 
ब्रितानी साम्राज्य ने 1874 में पूरी तरह से अपने अधीन ले लिया था, 
अस्सी के दशक में लंदन में कुछ 30-40 लोगों को लगा 
कि ईस्ट इंडिया कंपनी बहुत ही शक्तिशाली ब्रैंड है,
उन्होंने इसे ख़रीद लिया और फिर से बिज़नेस शुरु किया, 
उन्होंने काफ़ी पैसा भी लगाया, लेकिन मैने देखा कि 
उनका कंपनी से कोई भावनात्मक रिश्ता नहीं था,

मालिकों में से कोई भी हिंदुस्तानी नहीं था, 
लेकिन भारत से होने के नाते मैं इस कंपनी का महत्व और 
भावनात्मक अहमियत समझ रह था, मैने कंपनी को खरीदने का फ़ैसला किया, 
मैने कुछ साल पहले उनसे संपर्क किया और 
पिछले छह वर्षों में उनसे पूरी कंपनी ख़रीद ली।'

संजीव कहते हैं कि बिज़नेस के हिसाब से भी 
ये फ़ायदे का सौदा है क्योंकि इसके लिए 
पब्लिसिटी या मार्केटिंग की ज़रूरत नहीं है।
पंद्रह अगस्त को अब लंदन के मेयफ़ेयर 
इलाक़े में कंपनी का स्टोर खुल रहा है 
जिसे लक्ज़री स्टोर के तौर पर पेश किया जा रहा है। 
इसमें खाद्य सामग्री, होम फ़र्नीचर वगैरह होंगे।

इस कंपनी को ख़रीदने के पीछे संजीव मेहता के व्यापारिक कारण शायद कम हैं। 
इसके पीछे मूल उद्देश्य भावनात्मक हैं। 
जब वह इस विषय में बात करते हैं तो 
उनकी आवाज़ में अलग किस्म का देश प्रेम सुनाई देता है।

संजीव मेहता की योजना है कि 
अगले वर्ष ईस्ट इंडिया कंपनी को फिर से भारत ले जाया जाए 
जहां कि उसका कभी साम्राज्य था। 
चाहे यह कंपनी आज भी कहने को ब्रिटिश कंपनी है, 
मगर मूल अंतर यह है कि अब इस कंपनी का दिल हिन्दुस्तानी है।

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संजीव मेहता
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Saturday 25 May 2013

जिन्हें आज़ादी तो मिली थी, बिजली नहीं!

एक प्रयास ---------
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में मुख्यमंत्री निवास से 
महज़ 20 किलोमीटर दूर रायबरेली रोड पर एक गाँव है 
छिबऊखेड़ा.
लगभग 100 परिवार वाले इस गाँव के लोगों को 
इसी साल मई महीने में घर मे पंखों और बल्ब की रौशनी का सुख मिला है.
उन्होंने बताया, "हमारे गाँव में लगभग हर परिवार के पास चार-पांच साल पहले से मोबाइल फोन हैं. लेकिन हर कोई उन्हें चार्ज कराने तीन किलोमीटर दूर मोहनलालगंज तहसील में भेजता था. अब ऐसा नहीं होगा."राम अचल शहर में नौकरी करने जाते हैं और वर्षों से सिर्फ़ दफ़्तर में ही पंखे की हवा मिल पाती थी.

1947 में आज़ादी-------------------

गाँव में एक 100 किलोवाट का ट्रांसफार्मर लगा है 
जिससे इस गाँव में व्याप्त अँधेरा अब ग़ायब हो चुका है.
भारत को वर्ष 1947 में आज़ादी मिली थी जिसके बाद से 
उत्तर प्रदेश समेत सभी राज्यों के गांवों में बिजली पहुँचाने का काम शुरू हुआ था.
लेकिन किसी कारणवश राजधानी लखनऊ से 
महज़ आधे घंटे की दूरी पर स्थित इस गाँव पर किसी भी सरकार का ध्यान नहीं गया.
इसी वर्ष मई के पहले हफ्ते में जब गाँव में बिजलीकर्मी पहुंचे, 
तो तीन परिवारों ने गाँव के इकलौते मिठाई वाले को दस-दस किलो लड्डू बनाने के ऑर्डर दे डाले.

गर्मी-जाड़े की मार


मालती
मालती को वर्षों तक बिजली नहीं होने का अब भी मलाल है.

छिबऊखेड़ा के निवासी बताते हैं कि 
उनके लिए हर नया मौसम वर्षों तक पुरानी दिक्कतें लाता रहा.
मालती की शादी तय होने की कगार पर है.
उन्हें घरेलू काम-काज करना बेहद पसंद है, 
ख़ासतौर से साड़ी में फॉल लगाना.
लेकिन घर में बल्ब की रौशनी न होने की वजह से 
पिछले कई वर्षों से सूरज की रौशनी का ही सहारा था.
मालती ने बताया, "अब सब कुछ आसान हो गया है. 
रात को बल्ब की रौशनी में तीन-चार फॉल लगा कर काम ख़त्म कर लेती हूँ."
उन्हें इस बात का भी अफ़सोस है कि 
वर्षों तक हीटर या कूलर का सुख नहीं भोग सकीं.

बहराल अब गाँव में बिजली है और मूलरूप से खेती करने वाले 
यहाँ के निवासी अगली फ़सल और सिंचाई के मौसम का इंतज़ार कर रहे हैं.
घरों में नए मीटर लग चुके हैं और 
गाँव वालों ने पास की बाज़ार से बल्ब और पंखे लाने में देर नहीं की है.

वरदान


गाँव के बच्चों
गाँव के बच्चों के लिए बल्ब की रौशनी आज भी एक चमत्कार है.

गाँव के निवासियों के कहना है 
कि अभी तो बिजली 10 से 12 घंटों के लिए ही आ रही है लेकिन ये किसी वरदान से कम नहीं.
ज़्यादातर घरों में पंखे जड़े जा चुके हैं 
और मवेशियों को रखने की जगह में भी अब रौशनी है.

मुन्नालाल इसी गाँव में जन्मे और अपने मित्रों को 
गाँव का पता बताते समय 'बिना बिजली वाले गाँव' कहना नहीं भूलते थे.
अब ऐसा नहीं है. उन्होंने बताया, 
"गाँव में तो बाहर के लोग शादी करने में कतराते थे 
क्योंकि यहाँ उनकी बेटियों या दामादों को 
बिजली का सुख ही नहीं मिल सकता था. 
अब तो अपने बच्चों के भविष्य को लेकर थोड़े निश्चिन्त हो चुके हैं हम लोग."

फिलहाल तो छिबऊखेड़ा में बिजली लाने का श्रेय यहाँ की स्थानीय सांसद ले रहीं हैं.
हालांकि हकीकत यही है कि किसी भी 
राजनीतिक दल के पास इस बात का जवाब नहीं है बिजली पहुँचने में दशक दर दशक कैसे लग गए!

Friday 24 May 2013

एक शहर था एपिक्वेन..

एक प्रयास ---------
 गुरुवार, 23 मई, 2013 
  • अर्जेंटीना का एक शहर एपिक्वेन
    अर्जेंटीना के ब्यूनस आयर्स के दक्षिण पश्चिम में बसा
    एपिक्वेन शहर तकरीबन चौथाई सदी 
    पानी के भीतर गुजारकर वापस सतह पर लौट आया है. 
    25 सालों का सूनापन शहर की सड़कों के किनारे ठूंठ हो गए 
    पेड़ों को देखकर महसूस किया जा सकता है. 
    तस्वीर छह मई 2013 को एपिक्वेन की एक सड़क पर कार के भीतर से ली गई है.
  • अर्जेंटीना का एक शहर एपिक्वेन
    शहर की इमारतें पानी से बाहर निकली हैं. 
    25 सालों तक इनसानी साये से दूर रह कर ये वापस लौटी हैं. 
    कभी यहां की आबादी डेढ़ हजार के करीब हुआ करती थी 
    और कोई 20 हजार सैलानी हर साल यहां आया करते थे.
  • अर्जेंटीना का एक शहर एपिक्वेन
    एपिक्वेन डूबा तो यहां के शहरी पास के कारह्वे शहर जा कर बस गए. 
    वहां उन्होंने कई होटल और स्पा खोले 
    और सैलानियों को वो तमाम सुविधाएं देने की कोशिश की 
    जिसकी खातिर टूरिस्ट एपिक्वेन आया करते थे. 
    इसमें कीचड़ वाला फेशियल से लेकर 
    खारे पानी से होने वाला इलाज तक शामिल था. 
    कारह्वे भी दरिया किनारे बसे शहरों में से एक है.
  • अर्जेंटीना का एक शहर एपिक्वेन
    कहते हैं कि साल 1985 के नवंबर महीने में जबरदस्त बारिश हुई थी. 
    तटबंध टूट गए और शहर में बाढ़ का पानी चला आया था. 
    केवल 20 दिन ही लगे इस शहर को 33 फीट पानी के भीतर समा जाने में.
  • अर्जेंटीना का एक शहर एपिक्वेन
    अर्जेंटीना के सुनहरे दिनों में मुल्क से बाहर 
    जिन रेलगाड़ियों में अनाज भरकर बाहरी दुनिया को भेजा जाता था, 
    उन्हीं ट्रेनों में सैलानी भरकर देश की राजधानी ब्यूनस आयर्स आया करते थे. 
    उन सैलानियों को एपिक्वेन का आकर्षण अर्जेंटीना खींच लाया करता था.
  • अर्जेंटीना का एक शहर एपिक्वेन
    धीरे-धीरे कई साल गुजर गए. कई मौसम बीत गए. 
    पानी कम होना शुरू हुआ पर यह शहर कभी दोबारा आबाद नहीं हो पाया. 
    एक जामाना था 
    जब लोग इसके खारे पानी की औषधीय खूबियों की खातिर यहां आया करते थे 
    और अब इसके खंडहरों से उसके अतीत की कहानी सुनने आते हैं.
  • अर्जेंटीना का एक शहर एपिक्वेन
    पाब्लो नोवाक की उम्र 82 साल की हो चुकी है 
    और 1985 के मुश्किल दिनों में भी 
    उन्होंने अपनी घर, अपना शहर छोड़ने से इनकार कर दिया था. 
    आज वे खुश हैं कि लोग भले ही खंडहरों को देखने के लिए ही सही 
    पर वापस एपिक्वेन की तरफ रुख तो कर रहे हैं. 
    तस्वीर में दिख रही कब्रों में भले ही कोई सो रहा होगा 
    लेकिन ये शहर लंबी नींद के बाद जागा है.

Thursday 23 May 2013

मिलिए "सूरज" की मालकिन से!

एक प्रयास ---------September 1, 2011 

अब हो सकता है कि आपको सूर्य की रोशनी प्राप्त करने के लिए भी शुल्क चुकाना पडे!

पढने में यह विचित्र लग सकता है, परंतु स्पैन की एक महिला ने दावा किया है कि "सूर्य" उसकी सम्पत्ति है और उसने अपनी इस सम्पत्ति को पंजीकृत भी किया है.

परंतु सूर्य क्या किसी की सम्पत्ति हो सकता है?


1967 में स्वीकृत की गई बाह्य अवकाश ट्रिटी के अनुसार कोई भी देश धरती से बाहर अंतरिक्ष के किसी भी स्थान पर अपना स्वामित्व नहीं जता सकता है. परंतु इस ट्रिटी में आम लोगों का उल्लेख नहीं किया गया है. यानी कि कोई व्यक्ति चाहे तो ग्रहों और तारों पर अपना स्वामित्व जता सकता है. और ऐसा पहले हुआ भी है. अमेरिका के कुछ लोगों ने चंद्रमा, मंगल और शुक्र ग्रह पर अपना कब्जा होने का दावा किया है.

परंतु सूर्य अभी तक इस तरह के दावों से बचा हुआ था. अब स्पैन की 49 वर्षीय एंजेल्स डुरान ने दावा किया है कि उसने सूर्य पर अपना दावा प्रस्तुत किया था और उसे मान्यता मिली है. 
उन्होनें साक्ष्य के रूप में एक दस्तावेज जारी किया है जिसमें लिखा है कि 
"डुरान सूर्य नामक तारे की मालिक है जो पृथ्वी से करीब 14,96,00,000 किलोमीटर दूर है."

डुरान का बयान----------------
डुरान का कहना है कि ऊर्जा कम्पनिया नदियों पर बांध बनाती है, उससे ऊर्जा तैयार करती है और लोगों को बेचती है. नदी का पानी तो सबका है, फिर कोई कम्पनी उसपर अपना अधिकार कैसे जता सकती है. परंतु ऐसा होता है. तो फिर वह सूर्य की मालिक क्यों नही बन सकती है. 
डुरान अब स्पैन के उद्योग मंत्रालय से मिल रही है ताकी भविष्य की योजनाएँ तैयार की जा सके. बहरहाल उनका इरादा लोगों से सूर्यऊर्जा के बदले शुल्क वसूलना है.

इसका 50% हिस्सा सरकार को, 30% यूके के पैंशन फंड को, 10% भूखमरी से निपटने के लिए बने फंड को दिया जाएगा. 10%हिस्सा शोध में खर्च होगा और बाकी का 10% डुरान अपने पास रखेगी.

बाकी भगवान् मालिक .................




Wednesday 22 May 2013

ख़तरे में है 140 साल पुरानी ट्राम सेवा

एक प्रयास ---------
  • कोलकाता भारत का इकलौता शहर है जहां आज भी ट्राम चलती हैं. पिछले दो दशक के दौरान निवेश की कमी, रख रखाव के अभाव और यात्रियों की संख्या में कमी के चलते ट्राम की स्थिति बदतर हुई है. फोटोग्राफ़र रॉनी सेन ने भारतीय ट्राम की स्थिति को कैमरे में कैद किया है.
  • कोलकाता में पहला ट्राम 24 फरवरी, 1873 को चली थी. सियालदह से अर्मेनियन घाट स्ट्रीट के बीच 3.8 किलोमीटर की दूरी के बीच ज़्यादा यात्रियों के नहीं मिलने से इस सेवा को उसी साल नवंबर में बंद कर दिया गया. 1880 में घोड़ा से चलने वाली ट्राम की शुरुआत हुई. 19वीं शताब्दी के अंत तक कोलकाता में 186 ट्रॉम चलने लगे थे. 30 किलोमीटर के ट्रैक पर इसे करीब एक हज़ार घोड़े खींचते थे.
  • 1900 में ट्राम का विद्युतीकरण हुआ. यह 1943 आते-आते ये हावड़ा के आसपास विकसित होते शहरों को जोड़ने का जरिया बन चुकी थी. इस दौरान यह 67 किलोमीटर लंबे ट्रैक पर चलने लगी थी. मौजूदा समय में कोलकाता में 300 से ज़्यादा ट्राम मौजूद हैं, लेकिन इसमें 170 ट्राम ही ट्रैक पर उतरती हैं.
  • कोलकाता में ट्राम कार की केबिन में बैठा ड्राइवर. ट्राम कंपनी में अभी छह हज़ार से ज़्यादा कर्मचारी काम करते हैं. ख़बरों के मुताबिक़ कई बार आर्थिक दबाव के चलते कर्मचारियों को वेतन देने में भी मुश्किल आती है.
  • पिछले कई सालों से ट्राम की सवारियों की संख्या में लगातार गिरावाट आ रही है. 1980 के दशक के शुरुआती सालों में औसतन 275 ट्रामों में हर रोज साढ़े सात लाख लोग सफ़र करते थे. लेकिन इसके बाद सवारियों की संख्या लगातार कम होती गई.
  • मौजूदा समय में करीब 170 ट्रामों में हर रोज क़रीब एक लाख साठ हज़ार सवारियां यात्रा करती हैं. कोलकाता ट्रामवेज कंपनी की वेबसाइट पर बताया गया है कि सवारियों की संख्या लगातार गिर रही है. हालांकि 62 सीटों वाली ट्राम काफी आरामदायक और सस्ती है. लेकिन सवारियों की शिकायत है कि ट्राम की स्पीड कम है, इसलिए यात्रा में समय अधिक लगता है.
  • इसमें कोई अचरज नहीं होना चाहिए कि ट्राम डिपो किसी निर्जन स्थान जैसी ही होती हैं. कंपनी के अधीन अभी शहर में चार डिपो और पांच टर्मिनल हैं. इनसे शहर के 29 मार्गों पर ट्राम चलती हैं.
  • शहर के एक ट्राम डिपो के बाहर बैठे कर्मचारी और ड्राइवर. बीते कई सालों में ट्राम की कई सेवाओं को बंद कर दिया गया है.
  • आजकल शहर में ट्राम अमूमन 65 किलोमीटर के डबल ट्रैक पर चलती हैं. कई पुराने ट्रैक को फिर से बनाकर उनके स्तर को और बेहतर बनाया गया है.
  • लगातार घाटे से उबरने के लिए ट्राम कंपनी ने 1992 में बस सेवा शुरू की. उसने 40 बसों के बेड़े से पहली सेवा की शुरुआत की. आजकल आधुनिक ट्राम भी चलाई जा रही हैं. लेकिन ये आधुनिक ट्राम यात्रियों में लोकप्रिय नहीं हो पा रही हैं. इससे जाहिर है 

Tuesday 21 May 2013

तिब्बत में सुरक्षित हैं हजारों साल पुरानी 'दुर्लभ' भारतीय पांडुलिपियां

एक प्रयास ---------

बीजिंग.तिब्बत में भारतीय पांडुलिपियों के 50 हजार से ज्यादा ‘पेज’ संरक्षित हैं। इनमें से कुछ बहुमूल्य व दुर्लभ पांडुलिपियां संस्कृत में लिखी हैं। चीनी अधिकारियों ने बताया कि इन पांडुलिपियों को छांटने, फोटोकॉपी करने और पंजीकरण का काम 2006 में शुरू किया गया था। अब यह पूरा हो चुका है। ये पांडुलिपियां तिब्बती और अन्य प्राचीन भारतीय भाषाओं में लिखी हैं। 

क्षेत्र के पांडुलिपि संरक्षण कार्यालय के निदेशक सेवांग जिग्मे के मुताबिक, इनमें से कुछ ताड़ के पत्तों पर लिखीं दुर्लभ व बहुमूल्य पांडुलिपियां हैं। कुछ पेपर पर लिखी हैं। ताड़पत्र पांडुलिपियों का संबंध भारत से है। इन पर संस्कृत भाषा में बुद्ध ग्रंथ, प्राचीन भारतीय साहित्य और कोड लिखे हुए हैं। 
सेवांग ने बताया कि तिब्बत अब दुनिया की उन जगहों में शामिल हो गया है जहां सबसे ज्यादा संपूर्ण संस्कृत ताड़पत्र पांडुलिपियां पंजीकृत हैं। सामग्री और लेखन शैली से माना जा रहा है कि तिब्बत में संरक्षित अधिकांश ताड़पत्र पांडुलिपियां 8वीं से 14वीं शताब्दी के बीच की हैं।
चीन की सरकारी न्यूज एजेंसी शिन्हुआ के मुताबिक, भारत में अनेक ताड़पत्र पांडुलिपियां संघर्ष, युद्ध और उमस भरे मौसम के कारण क्षतिग्रस्त हो गईं। लेकिन जिन पांडुलिपियों को तिब्बत लाया गया उनमें से अधिकतर अच्छी हालत में हैं।

Monday 20 May 2013

---------हौसले को सलाम ---------------

एक प्रयास ---------
एवरेस्ट पर्वत पर पहुंचीं भारतीय पर्वतारोही अरुणिमा---------

भारतीय पर्वतारोही अरुणिमा एवरेस्ट पर पहुंच गई हैं। 
अरुणिमा ने हादसे में एक पैर गंवा दिया था। आज सुबह 10.55 पर अरुणिमा एवरेस्ट पर पहुंचीं।
अरुणिमा के साथ पर्वतारोही लवराज भी एवरेस्ट पर पहुंचे हैं।
लवराज पांचवीं बार एवरेस्ट शिखर पर पहुंचे हैं।
अरुणिमा पहले ही लद्दाख में 21000 फ़ीट की ऊंचाई तय कर चुकी है।
बस अब 8000 फ़ीट और ऊंची चढ़ाई चढ़ कर वह एवरेस्ट पर जाना चाहती थीं और इतिहास बनाना चाहती थी जो आज उन्होंने बना दिया।
अरुणिमा हौसलों की उड़ान भर रही हैं।
बिना एक पांव के वह एवरेस्ट पर चढ़कर विकलांग शब्द की परिभाषा बदलना चाहती थीं।
उनके परिवार ने अरुणिमा की इस उपलब्धि पर हर्ष व्यक्त किया है।

....राज़ की बात

एक प्रयास ---------
चीनी प्रधान मंत्री चीनी भाषा में बोले और हमारे PM ENGLISH में बोले .......
अरे हिंदी ठीक से नहीं आती तो पंजाबी बोल लेते ....................

..........राज़ की बात तो ये है मन्नू भैया के बस में नही था वरना वो तो पक्का इतालवी बोलते

Sunday 19 May 2013

राहा मोहर्रक----ऐवरेस्ट फतह करने वाली पहली सऊदी महिला

एक प्रयास ---------

सऊदी अरब की एक महिला ने 
क्लिक करेंदुनिया की सबसे ऊंची चोटी ऐवरेस्ट पर परचम लहरा कर इतिहास रच दिया है.
पच्चीस वर्षीय 'राहा मोहर्रक' क्लिक करेंऐवरेस्ट पर चढ़ने वाली क्लिक करेंसऊदी अरब की पहली महिला बन गई हैं.
इसके साथ ही वह ऐवरेस्ट की चोटी पर पहुंचने वाली सबसे युवा सऊदी नागरिक भी बन गई हैं.
राहा के चार सदस्यीय पर्वतारोही दल में शामिल कतर और फ़िलीस्तीन के सदस्य भी इस सबसे ऊंची चोटी पर चढ़ने वाले अपने-अपने देश के पहले नागरिक बन गए हैं.

इजाज़त की चुनौती

इस अभियान दल का लक्ष्य नेपाल में शिक्षा से जुड़े कार्यक्रमों के लिए दस लाख डॉलर (5,47,95,000 रुपए) जुटाना था.
राहा मूल रूप से जेद्दा की रहने वाली हैं. स्नातक डिग्री हासिल कर चुकीं राहा अब दुबई में रहती हैं.उनके अभियान दल के सदस्य कहते हैं कि सऊदी अरब जैसे रूढ़िवादी मुस्लिम देश की निवासी राहा को अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए कई बाधाओं का सामना पड़ा.
सऊदी अरब में महिलाओं को काफ़ी सीमित अधिकार मिले हुए हैं.
इस अभियान की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के अनुसार पर्वतारोहण के लिए मोहर्रक के लिए परिवार की अनुमति हासिल करना, “ख़ुद पहाड़ जितनी ही बड़ी चुनौती” थी.
हालांकि अब मोहर्रक परिवार राहा का समर्थन करता है.
वेबसाइट के अनुसार राहा का कहना है, “मुझे ‘सबसे पहला’ होने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता. जब तक कि यह किसी और को दूसरे स्थान पर आने के लिए प्रेरित न करे.”

ऑस्ट्रेलिया में ऊंटों ने मचाया कोहराम

एक प्रयास --
ऑस्ट्रेलिया अपने वन्य जीवों के लिए दुनिया भर में मशहूर है. अगर यह कंगारू, कोआला और विभिन्न प्रकार के सांपों और मकड़ियों का देश कहा जाता है तो इसके साथ ही दुनिया के सबसे ऊंट भी यहीं पाए जाते हैं

यहाँ सात लाख 50,000 हजार से अधिक जंगली ऊंट दूर-दराज के सुनसान इलाकों में आवारा घूमते रहते हैं और लोगों के सामने कई प्रकार की समस्याएं पैदा करते हैं.

ऊंट उन्नीसवीं सदी में अरब, भारत और अफ़ग़ानिस्तान से ऑस्ट्रेलिया लाए गए थे ताकि उनसे गैर आबाद क्षेत्रों में परिवहन का काम लिया जा सके.

लेकिन मोटर गाड़ियों के विकास के साथ ही उनकी जरूरत बाकी नहीं रही तो उनमें से कई हजार को यूं ही आवारा छोड़ दिया गया.
एक ऐसे क्षेत्र में जहां प्राकृतिक शिकारी न हों और मनुष्यों की आबादी भी कम हो तो वहाँ ऊंटों को पनपने का काफ़ी मौका मिलता है वहां उनकी आबादी बेहद तेज़ी से बढ़ी.

पर्यटक और लेखक साइमन रीफ़ का इस बारे में कहना है,"उनके साथ एक बड़ी समस्या यह है कि वे बहुत पानी पीते हैं और एक ही बार में कई गैलन पानी पी जाते हैं. पानी के ज़खीरों और खेतों इससे आर्थिक नुकसान पहुंचाता है. ऊंट वो पानी भी पी जाते हैं जो यहां के प्राचीन जानवरों के लिए सुरक्षित था."

उनका यह भी कहना है कि ऊंट यहाँ सुनसान क्षेत्रों की स्थिति में जीवित रहने के लिए विशेष क्षमता रखते हैं. उन्हें यहां लाना उस समय तात्कालिक समझदारी थी लेकिन दीर्घकालिक आधार पर यह विनाशकारी साबित हो रहा है.

चिंता का विषय

ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी क्षेत्र में एलिस स्प्रिंग के पश्चिम में दस लाख एकड़ की एक पट्टी है जिसे लैंडी सेवेरिन चलाती हैं वहाँ ऊंट ने तबाही मचा रखी है.
वे कहती हैं, "हमारे बुनियादी ढाँचे को ऊंट बहुत नुकसान पहुंचाते हैं. वे टैंक, पंप और पाइप तोड़ देते हैं. वह बाड़ को तोड़ देते हैं जो कि हमारे लिए काफ़ी चिंता का विषय है."
"वे इस क्षेत्र में हर चीज़ पर काबिज हैं और अगर वे पेड़ को नष्ट कर देते हैं और सारी घास खा जाते हैं तो यहां कोई कंगारू नहीं होंगे, कोई कीमो और छोटी चिड़िया होगी ही नहीं. और न ही कोई सरकने वाला जानवर हो सकेगा."
                                                           लैंडी सेवेरिन, फॉर्म हाउस की मलाकिन
लेकिन यह चिंता केवल उन तक ही सीमित नहीं है बल्कि इससे ऑस्ट्रेलिया के दूसरे मूल प्राणी भी प्रभावित होते हैं. ये उनकी खुराक कम कर देते हैं और उनके प्राकृतिक अभयारण्य को भी नष्ट कर देते हैं.

वे कहती हैं,"वे इस क्षेत्र में हर चीज़ पर काबिज हैं और अगर वे पेड़ों को नष्ट कर देते हैं और सारी घास खा जाते हैं तो यहां कोई -कंगारू नहीं होंगे, कोई कीड़े और छोटी चिड़िया नहीं होगी. और न ही कोई सरकने वाला जानवर हो सकेगा."
सेवेरिन और उनकी टीम हेलीकाप्टर से ऊंटों का शिकार करती हैं और उन्हें वहीं सड़ने के लिए छोड़ देते हैं. वह कहती हैं कि हम खुशी से ऐसा नहीं करते बल्कि हमें यह करना पड़ता है.

ऊंट ऑस्ट्रेलिया के 33 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में आवारा घूमते हैं और उनमें पश्चिम, दक्षिण और उत्तरी ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वींस लैंड क्षेत्र भी शामिल है.

इंसान दर्जनों प्रकार के प्राणियों को ऑस्ट्रेलिया लेकर गया. उनमें जंगली घोड़े, सूअर, बकरियां, कुत्ते, बिल्लियों, खरगोश और लोमड़ियां शामिल हैं लेकिन अब ये यहां के जैव प्रणाली के लिए बड़े मुद्दे बन गए हैं.

वर्ष 2010 में ऑस्ट्रेलियाई सरकार ने उन पर काबू पाने के लिए उन्हें खाने के लिए मारने की एक योजना बनाई ताकि उनकी संख्या पर्याप्त कमी की जा सके.

वर्ष 2001 से 2008 के दौरान एक अनुमान के अनुसार सुनसान इलाकों में 10 लाख ऊंट थे जिनमें हज़ारों को प्रोजेक्ट के तहत बेचने के लिए और मारने करने के लिए रेटिंग के हिसाब से अलग किया गया.


नुकसान की वजह से ऊंट को किसान मार भी देते हैं लेकिन जानवरों के लिए काम करने वाली संस्था ने इसका विरोध किया है
जानवरों के लिए काम करने वाली संस्था एमिमल ऑस्ट्रेलिया ने इसे नरसंहार 'बताया' था.
आरएसपीसीए (रॉयल सोसाइटी फॉर दी प्रिवेंशन ऑफ क्रुएलिटी टू एनिमल) का कहना है कि ऊंट प्रबंधन के लिए एक राष्ट्रीय योजना की जरूरत है.

कई किसानों का कहना है कि उनके पास कोई चारा नहीं है और उन्हें जो समझ में आता है वे करते हैं. चराई के नुकसान के साथ ऊंट से होने वाले नुकसान का अनुमान एक करोड़ आस्ट्रेलियाई डॉलर लगाया गया है.
रीफ़ ने बीबीसी से बात करते हुए कहा "हम जैसे बहुत से लोगों के लिए उनका मारा जाना दर्दनाक है लेकिन हमारे पास कोई चारा भी तो नहीं".

इयान कानवे 1800 वर्ग किलोमीटर का जानवरों का खेती का फ़ॉर्म चलाते हैं.ये एलिस स्प्रिंग के पास है. उनका मानना है कि इन जानवरों की संख्या में अन्य तरीकों से कमी लाई जा सकती है.ऊंट एक दिन में चालीस मील यात्रा कर सकता है और उसे ज्यादातर मध्य पूर्व के देशों को बेचा जाता है.

पिछले 40 साल के जानवरों को पाल पोस रहे कानवे जैसे लोगों का मानना है कि इसे मांस के लिए बेचा जाना चाहिए. कानवे के मुताबिक गाय के मांस और ऊंट के मांस में ज़्यादा फ़र्क नहीं है. कुछ लोग तो गाय के बदले ऊंट के मांस को ज्यादा पसंद करते हैं.

वन्य जीवों के लिए प्रसिद्ध ऑस्ट्रेलिया में ऊंटों को एक जगह इकट्ठा करने के लिए हेलीकॉप्टर का सहारा लिया जाता है

नुकसान की वजह से ऊंट को किसान मार भी देते हैं लेकिन जानवरों के लिए काम करने वाली संस्था ने इसका विरोध किया है