एक प्रयास --------
आज जो भी वर्णन करने जा रही हूँ काश !! मेरे पास उस समय के चित्र होते !!!!!....
हमारे तो नही हाँ दादा -दादी और मम्मी -पिताजी के पुराने चित्र ज़रूर मिलेंगे
आज जब हमारे बच्चे छुट्टियों में अपनी दादी के घर से नानी के यहाँ जाते हैं
तो मुझे अपना बचपन याद आता है .
हम लोग में रुड़की रहते थे तो छुट्टियां होते ही गाँव दादी के पास जाने का मन होता था
दो बुआजी, दो ताईजी के परिवार और हम सब मिला कर कोइ १५ -२० लोग गाँव पहुँचते थे
जिया (दादी ) और बाबा
६-७ घंटे की यात्रा करके हम पहले बुलंदशहर आते रात में ताईजी के यहाँ रूकते और फिर सुबह
वो लोग भी हमारे साथ गाँव जाते थे ,
हमारा गाँव स्याना से बुगरासी जाने वाली सड़क पर रास्ते में पड़ता था ,
हम रास्ते में कोटरा के पुल पर उतर जाते
शाम को छत पर छिडकाव कर बिस्तर लग जाते ,खाना जल्द ही निबट जाता क्यों कि लाईट तो
थी नही दो -तीन लालटेन जलती थी........
उनमें से एक बड़ी लालटेन पूरे साल तो आराम करती उसे बड़े संभाल कर रखा जाता था और वो
तभी निकलती जब सब लोग आ जाते थे ........ये लालटेन उन्हें यानि दादी को किसी ने दुबई से
लाकर दी थी और उसकी चिमनी यहाँ नही मिलती थी इस लिए उसे बहुत संभाल कर रखती थीं
.........कई चारपाई आँगन में बिछती और बाकी लोग ऊपर छत पर सोते थे .............
सोने से पहले बड़ी बुआजी और छोटे ताउजी से कहानी सुनते थे और नियम ये था कि सुनते समय
हुंकारा भरना ज़रूरी था .............
दिन भर के थके हारे सब के सब धीरे -धीरे कहानी सुनते -सुनते
ही लुढक जाते ........
मम्मी पिताजी
कई बार दिन में तरबूज-खरबूज ले कर आते और मज़े से खाते
वहाँ पैसे से ही नहीं अनाज से भी सामान मिलता था हम भी अनाज ले जाते
और ढेर सारे खरबूज तरबूज और आम ले आते ........
ये सिलसिला आये दिन चलता रहता
घर के बराबर में मंदिर था वहाँ एक नीम का बहुत पुराना पेड़ जिसकी छाया हमारे आधे आँगन को
भी घेरे रहती थी.
उस पर झूला डाल जेठ -बैसाख में ही सावन का मज़ा लेते ........
गाँव में जो बम्बा था वहां सभी ब्राह्मण परिवारों के घेर (जहाँ जानवर आदि बांधे जाते हैं) थे
हम बम्बे में नहाने जाते ......कभी बता कर और कभी चोरी -चोरी
यदि चोरी से जाते तो भेद खुल ही जाता ..........कोई ना कोई लड़ाई होने पर बता ही देता था
और फिर जम कर डांट पड़ती लेकिन हम पर कहाँ असर होता हम तो एक कान से सुना दूसरे से
निकाला ....यदि बता कर जाते तो घर से घी नमक लगा कर रोटी ले जाते और नहाने के बाद
खाते थे .....अगर किसी ने आम दे दिए तो पूछो मत सोने पर सुहागा
और ऐसी खातिर दारी अक्सर होती ही रहती थी.............
दादी का बड़ा सम्मान था गाँव में .
पिताजी जिया के साथ
आज जो भी वर्णन करने जा रही हूँ काश !! मेरे पास उस समय के चित्र होते !!!!!....
हमारे तो नही हाँ दादा -दादी और मम्मी -पिताजी के पुराने चित्र ज़रूर मिलेंगे
आज जब हमारे बच्चे छुट्टियों में अपनी दादी के घर से नानी के यहाँ जाते हैं
तो मुझे अपना बचपन याद आता है .
हम लोग में रुड़की रहते थे तो छुट्टियां होते ही गाँव दादी के पास जाने का मन होता था
दो बुआजी, दो ताईजी के परिवार और हम सब मिला कर कोइ १५ -२० लोग गाँव पहुँचते थे
जिया (दादी ) और बाबा
६-७ घंटे की यात्रा करके हम पहले बुलंदशहर आते रात में ताईजी के यहाँ रूकते और फिर सुबह
वो लोग भी हमारे साथ गाँव जाते थे ,
हमारा गाँव स्याना से बुगरासी जाने वाली सड़क पर रास्ते में पड़ता था ,
हम रास्ते में कोटरा के पुल पर उतर जाते
बस के बाद थोड़ा रास्ता बम्बे के सहारे -सहारे पैदल तय कर अपने घर पहुँच जाते
बहुत बड़ा घर था हमारा
अपनी खेती भी थी कई खेत थे ,
पिता कानूनगो से तहसीलदारी तक नौकरी में रहे
और झांसी के पास बबेरू से तहसीलदार के पद से रिटायर हुए
दादी रहती थी वहाँ एक गाय थी घर पर और कोई ना कोई बहनों में से उनके पास रहता था |
कभी में , कभी कोई बहन
बहुत बड़ा घर था हमारा
अपनी खेती भी थी कई खेत थे ,
पिता कानूनगो से तहसीलदारी तक नौकरी में रहे
और झांसी के पास बबेरू से तहसीलदार के पद से रिटायर हुए
दादी रहती थी वहाँ एक गाय थी घर पर और कोई ना कोई बहनों में से उनके पास रहता था |
कभी में , कभी कोई बहन
बड़ा सा आँगन था ....
एक और कोने में ढेर सारी जगह में तुलसा जी विराजमान थी |
एक कोना गाय के लिए था और बाकी जगह पर अपना साम्राज्य था
एक और कोने में ढेर सारी जगह में तुलसा जी विराजमान थी |
एक कोना गाय के लिए था और बाकी जगह पर अपना साम्राज्य था
गाँव में बिजली नही थी लेकिन कच्ची छत और पक्की दीवार वाला अपना घर बहुत बड़ा था
चूल्हे पर खाना बनता था और ये दायित्व घर की सभी महिलायें उठाती थी.......
सुबह दूर तक खुले खेतों में घूमना ......
आस -पास के बच्चों से हमारी बहुत अच्छी दोस्ती थी
कहीं किसी के यहाँ मट्ठा मिल गया तो पी लिया .
गाँव में सब बहुत प्यार से मिलते हाल -चाल पूंछते....घर आ कर नल के ठन्डे पानी से नहाना
उसके बाद कभी परांठे - अचार , कभी दलिया और कभी उबले चने का नाश्ता खाते ........
और फिर पूरी दोपहर कैरम , ताश , लूडो और गिट्टू खेलते ......एक खेल और लूडो की तरह होता
..ज़मीन पर बनाते और उसे अष्टा -चक्कन कहते .........
खूब लड़ाई -झगडा और धमाल मचता एक ट्रंक में सरिता , कादम्बिनी और नंदन वगेरह भी थी
ये मेरे पिता का बहुत पुराना उस समय का पुस्तकालय था जब वो गाँव अक्सर आते रहते
जो पत्रिका ले आये वहीँ छोड़ दी ....
जिसे दादी संभाल कर ट्रंक में रख देती और अब हम सब जम कर उनका लुत्फ़ उठाते .....
जहाँ ट्रंक रखा होता वहाँ अन्धेरा सा रहता तो हम एक -दूसरे को लेकर जाते और अपनी पसंद की
पुस्तक ले आते ......
नानाजी सगाई के समय पिताजी का टीका करते हुए
चूल्हे पर खाना बनता था और ये दायित्व घर की सभी महिलायें उठाती थी.......
सुबह दूर तक खुले खेतों में घूमना ......
आस -पास के बच्चों से हमारी बहुत अच्छी दोस्ती थी
कहीं किसी के यहाँ मट्ठा मिल गया तो पी लिया .
गाँव में सब बहुत प्यार से मिलते हाल -चाल पूंछते....घर आ कर नल के ठन्डे पानी से नहाना
उसके बाद कभी परांठे - अचार , कभी दलिया और कभी उबले चने का नाश्ता खाते ........
और फिर पूरी दोपहर कैरम , ताश , लूडो और गिट्टू खेलते ......एक खेल और लूडो की तरह होता
..ज़मीन पर बनाते और उसे अष्टा -चक्कन कहते .........
खूब लड़ाई -झगडा और धमाल मचता एक ट्रंक में सरिता , कादम्बिनी और नंदन वगेरह भी थी
ये मेरे पिता का बहुत पुराना उस समय का पुस्तकालय था जब वो गाँव अक्सर आते रहते
जो पत्रिका ले आये वहीँ छोड़ दी ....
जिसे दादी संभाल कर ट्रंक में रख देती और अब हम सब जम कर उनका लुत्फ़ उठाते .....
जहाँ ट्रंक रखा होता वहाँ अन्धेरा सा रहता तो हम एक -दूसरे को लेकर जाते और अपनी पसंद की
पुस्तक ले आते ......
नानाजी सगाई के समय पिताजी का टीका करते हुए
शाम को छत पर छिडकाव कर बिस्तर लग जाते ,खाना जल्द ही निबट जाता क्यों कि लाईट तो
थी नही दो -तीन लालटेन जलती थी........
उनमें से एक बड़ी लालटेन पूरे साल तो आराम करती उसे बड़े संभाल कर रखा जाता था और वो
तभी निकलती जब सब लोग आ जाते थे ........ये लालटेन उन्हें यानि दादी को किसी ने दुबई से
लाकर दी थी और उसकी चिमनी यहाँ नही मिलती थी इस लिए उसे बहुत संभाल कर रखती थीं
.........कई चारपाई आँगन में बिछती और बाकी लोग ऊपर छत पर सोते थे .............
सोने से पहले बड़ी बुआजी और छोटे ताउजी से कहानी सुनते थे और नियम ये था कि सुनते समय
हुंकारा भरना ज़रूरी था .............
दिन भर के थके हारे सब के सब धीरे -धीरे कहानी सुनते -सुनते
ही लुढक जाते ........
मम्मी पिताजी
कई बार दिन में तरबूज-खरबूज ले कर आते और मज़े से खाते
वहाँ पैसे से ही नहीं अनाज से भी सामान मिलता था हम भी अनाज ले जाते
और ढेर सारे खरबूज तरबूज और आम ले आते ........
ये सिलसिला आये दिन चलता रहता
घर के बराबर में मंदिर था वहाँ एक नीम का बहुत पुराना पेड़ जिसकी छाया हमारे आधे आँगन को
भी घेरे रहती थी.
उस पर झूला डाल जेठ -बैसाख में ही सावन का मज़ा लेते ........
गाँव में जो बम्बा था वहां सभी ब्राह्मण परिवारों के घेर (जहाँ जानवर आदि बांधे जाते हैं) थे
हम बम्बे में नहाने जाते ......कभी बता कर और कभी चोरी -चोरी
यदि चोरी से जाते तो भेद खुल ही जाता ..........कोई ना कोई लड़ाई होने पर बता ही देता था
और फिर जम कर डांट पड़ती लेकिन हम पर कहाँ असर होता हम तो एक कान से सुना दूसरे से
निकाला ....यदि बता कर जाते तो घर से घी नमक लगा कर रोटी ले जाते और नहाने के बाद
खाते थे .....अगर किसी ने आम दे दिए तो पूछो मत सोने पर सुहागा
और ऐसी खातिर दारी अक्सर होती ही रहती थी.............
दादी का बड़ा सम्मान था गाँव में .
पिताजी जिया के साथ
कुल मिला कर ये कि बीस -बाइस दिन कैसे हवा हो जाते थे पता ही नही चलता था ..............
जाने का दिन आ जाता .........
सबके बोरिया बिस्तर बांध जाते और सब चल पड़ते थे अगले साल
तक के लिए यादों का गट्ठर बाँध अपने -अपने गंतव्य की ओर........
ये सिलसिला सालों -साल चलता रहा फिर जब दादी बीमार हो कर हमारे पास आ गयीं तो गाँव
का घर बंद हो गया
फिर एक बरसात में गिर भी गया और सारा सामान दब गया था लेकिन मलवे से जरूरी सामान
निकाल लिया गया ,फिर घर में दो कमरे बनवाये गए क्यों कि मम्मी को अक्सर खेती के सिलसिले में गाँव जाना पड़ता था
जब दादी नही रही तो सारी ज़मीन बेच दी क्यों कि फायदा कम और नुक्सान ज़्यादा हो रहा था
घर एक आत्मीय परिवार को दे दिया रहने के लिए .........
आज भी उनके संपर्क में हैं हम आज भी अगर गाँव गए तो रहने और
खाने की परेशानी नही होगी इतना विश्वास है ..
अब माता -पिता कोई रहे नही गाँव गए करीब तीस साल हो गए हैं .........
लेकिन एक हुक सी उठती है आज भी ........
और एक-एक याद बिलकुल साफ़ शीशे की तरह दिल के हर कोने में बसी है ...........
जाने का दिन आ जाता .........
सबके बोरिया बिस्तर बांध जाते और सब चल पड़ते थे अगले साल
तक के लिए यादों का गट्ठर बाँध अपने -अपने गंतव्य की ओर........
ये सिलसिला सालों -साल चलता रहा फिर जब दादी बीमार हो कर हमारे पास आ गयीं तो गाँव
का घर बंद हो गया
फिर एक बरसात में गिर भी गया और सारा सामान दब गया था लेकिन मलवे से जरूरी सामान
निकाल लिया गया ,फिर घर में दो कमरे बनवाये गए क्यों कि मम्मी को अक्सर खेती के सिलसिले में गाँव जाना पड़ता था
जब दादी नही रही तो सारी ज़मीन बेच दी क्यों कि फायदा कम और नुक्सान ज़्यादा हो रहा था
घर एक आत्मीय परिवार को दे दिया रहने के लिए .........
आज भी उनके संपर्क में हैं हम आज भी अगर गाँव गए तो रहने और
खाने की परेशानी नही होगी इतना विश्वास है ..
अब माता -पिता कोई रहे नही गाँव गए करीब तीस साल हो गए हैं .........
लेकिन एक हुक सी उठती है आज भी ........
और एक-एक याद बिलकुल साफ़ शीशे की तरह दिल के हर कोने में बसी है ...........
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट का लिंक आज बृहस्पतिवार के चर्चा मंच पर भी है!
सूचनार्थ!
सादर आभार शास्त्री जी
Deleteगांव से निकल कर शहरों में बस गये लोगों की अपनी जैसी कहानी लगी आपकी इन यादों का झरोखा. इसे यादों का झरोखा कहना ही ठीक लग रहा है मुझे, बहुत ही मीठी और कसकदार होती हैं ये.
ReplyDeleteहमारा भी यही हाल था पर हम अब भी साल में एक बार अवश्य जाते हैं. लेकिन यकीन मानिये अब ना वो गांव रहे, ना वो मोहब्बते रही और ना ही वो बिना बिजली का माहोल.
बच्चों को कहानियां सुनने सुनाने का माहोल हवा हो चुका है, डिश एंटेना से टीवी महाराज या लेपटोप पर बच्चे चिपके मिलते हैं और एंड्रायड मोबाईल्स ने जैसे गांव और बचपन को लील लिया है.
खैर....समय के साथ साथ सब कुछ बदलना प्राकृतिक समझ कर संतोष कर लेते हैं, आपने यादों का पिटारा बहुत ही सहज रूप से खोला, शुभकामनाएं.
रामराम.
राम -राम ताऊ
Deleteआपका कहना सही है अब गाँव में भी वो बात नही रही
कहानी सुनना सुनना तो जैसे सपना लगता है ...
लेकिन समय का परिवर्तन है समय की मांग है .........हमें स्वीकार करना ही होगा
अरे यहाँ तो सब कुछ अपने गाँव जैसा मेरी यादों जैसा लगा सबकुछ !
ReplyDeleteआभार ...!
आभार सुमन जी
Deleteकितनी सुन्दर यादें हैं ना .......
sundar post aapka aabhar
ReplyDeleteस्वागत है सवाई singh जी
Deleteस्मृतियों के आँगन में
ReplyDeleteजीवन की धरोहर
उत्कृष्ट और भावनात्मक प्रस्तुति
सादर
आग्रह है- पापा ---------
सादर आभार खरे जी
Deleteयादों का भावभीना झरोखा ... ब्लेक एंड वाईट फोटो के साथ एक कोलाज सा तैयार किया है ... जो वापस के जाता है अतीत में ...
ReplyDeleteबहुत ही भावमय प्रस्तुति ...
धन्यवाद दिगंबर जी
Deleteयादों की बहुत सुन्दर प्रस्तुति ...बधाई आप को
ReplyDeleteधन्यवाद मीना जी
Deleteo jijji sab kuchh kal ki tarah ghooom gya ankho ke samne .......time machin aye aur hm wapas us samay me jayen .........wah sachdil khush ho gya
ReplyDeleteआज पढ़ा तेरा कमेंट
ReplyDeleteलगता है जैसे कल की बात है