Saturday 29 June 2013

उत्तराखंड: पहाड़ में कूड़ा बीनने वाली विदेशी 'गार्बेज गर्ल'---वंदना शर्मा

एक प्रयास ---

जोडी अंडरहिल

उत्तराखंड में सेना के जवान जान जोखिम में डाल लोगो को 
बचाकर राहत शिविरों में ला रहे हैं, तो स्थानीय लोग देहरादून जैसी जगहों पर बड़ी संख्या में अपनों का इंतज़ार कर रहे लोगों की सेवा में लगे हैं.
खाना, पानी, ज़रूरी सामान.. पिछले एक हफ़्ते में यहाँ कूड़े का अंबार लग गया है. कूड़े का ये ढेर अब अपने आप में एक समस्या बन गया है.
ऐसे में स्थानीय लोगों ने मिलकर 'गार्बेज गर्ल' को फ़ोन लगाया. 
ये हैं ब्रिटेन की नागरिक जोडी अंडरहिल, जिन्हें स्थानीय लोग 'गार्बेज गर्ल' यानी कूड़ा बीनने वाली लड़की कहते हैं. 
बिना गंदगी की परवाह किए जोडी और उसके साथी पिछले कई दिनों से क्लिक करेंउत्तराखंडमें कूड़ा-करकट साफ़ करने के अभियान में लगे हैं, जो बाढ़ के बाद देहरादून के सहस्रधारा हेलीपैड के पास जमा हो रहा है.
बारिश की वजह से पूरे इलाक़ों में पानी और कीचड़ जमा है और कीचड़ से सने इसी पानी में से जोडी कूड़ा इकट्ठा करने का काम कर रही हैं.
जोडी कहती हैं कि हेलिपैड पर जब बाढ़ में फँसे हुए लोगों को लाया जाता है तो उनके चेहरे पर राहत का भाव देखने लायक होता है और वहाँ का दृश्य भावुक हो जाता है. मगर इस सबको एक तरफ कर जोडी की टीम का ध्यान केवल और केवल गंदगी साफ़ करने में लगा है.
मैंने जब उन्हें फोन किया तो वो देहरादून में हेलिपैड से कूड़े के बड़े-बड़े पैकेट जमा कर वापस लौट रही थीं.
जोडी अंडरहिल
जोडी अंडरहिल देहरादून में पिछले कुछ समय से साफ सफाई का काम कर रही हैं
इंग्लैंड छोड़ आई भारत---------------
जोडी इस इलाक़े में नई नहीं है. यूँ तो वह ब्रिटेन में पली-बढ़ी हैं लेकिन पिछले कई वर्षों से वह भारत में हिमालय के इलाक़ों में काम कर रही हैं. अपने साथियों के साथ मिलकर जोडी देहरादून और धर्मशाला में कूड़ा हटाने और लोगों को जागरूक करने का काम करती हैं. हाथों में दस्ताने पहने वो ख़ुद गंदगी भरे इलाकों में जाकर उसे साफ़ करती हैं.
अब जब उत्तराखंड में प्राकृतिक आपदा आई है तो जोडी भी मदद कार्यों में कूद पड़ी हैं. वह लोगों को बचाने या उनकी मदद का काम नहीं कर रहीं बल्कि ऐसे काम में लगी हैं जिसे कम ही लोग करना चाहते हैं.
हेलिपैड पर इतनी संख्या में जमा बाढ़ पीड़ित, उनके रिश्तेदार, राहतकर्मी पीछे बड़ी मात्रा में कूड़ा छोड़ जाते हैं जिसे अगर न हटाया जाए तो बीमारी का कारण बन सकता है. सरकारी संधाधन इसके लिए काफी नहीं हैं.
जोडी अंडरहिल
जोडी कहती हैं कि उन्हें ये काम करने में कोई शर्म महसूस नहीं होती
'कुदरत का निरादर'----------

जोडी इंग्लैंड की रहने वाली हैं. कुछ साल पहले भारत आई जोडी ने जब पहाड़ी इलाकों में गंदगी का स्तर देखा तो काफी दुखी हुईं, खासकर प्लास्टिक को लेकर जागरूकता का अभाव.
बस जोडी ने यहीं रह जाने का मन बना लिया और अपने स्तर पर गंदगी से सने इलाक़ों में साफ़ सफाई का काम करना शुरु किया. और साथ ही लोगों को जागरुक करने का भी. वह 'वेस्ट वॉरियर्स' नाम का संगठन चलाती हैं.
हाथ में झाड़ू लिए और दस्ताने पहने साफ़-सफ़ाई करते उन्हें देखा जा सकता है. धीरे-धीरे लोग उनके साथ जुड़ते रहे और वह छोटे से संगठन के ज़रिए ये काम कर रही हैं. इसीलिए लोग उन्हें 'गार्बेज गर्ल' के नाम से भी पुकारते हैं
अपना देश छोड़कर कई सालों से भारत के पहाड़ों को ही अपना घर बना चुकी जोडी उत्तराखंड की त्रासदी से बेहद दुखी हैं. वह कहती हैं, "हमने पर्यावरण का इतना निरादर किया है, अब कुदरत ने हमें चेतावनी दी है. इतने लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है. हमें ये प्रण लेना चाहिए कि इतने लोगों की जो जान गई, वो ज़ाया न जाए. कुछ तो हम सीखें इससे."
फिलहाल तो वो देहरादून में हेलिपैड के पास साफ-सफाई में लगी है लेकिन जोडी मानती हैं कि समस्या कहीं ज़्यादा गंभीर हैं.
जोडी कहती हैं, "अभी बचाव कार्य समाप्त हो जाएगा. जब बाकी इलाक़ों तक हम पहुँचना शुरू करेंगे तो पता चलेगा कि कितनी गाद, गंदगी ऊपर से बहकर जमा हो गई है. गाँव दोबारा बसाने हैं तो गंदगी साफ करनी होगी. ये चुनौतीपूर्ण काम होगा. हम इसी की तैयारी कर रहे हैं."
जोडी आगाह करते हुई कहती हैं, "बहुत से लोग मदद करने के लिए पहुँच रहे हैं लेकिन अभी न रास्ते हैं, न खाने-पीने का सामान. हमें योजनाबद्ध तरीके से काम करना होगा. अभी तो शुरुआत है. बहुत काम करना बाकी है. इसलिए मदद करने की इच्छा करने वाले समन्वय के साथ चलें."
पान की पीक, गंदे नालों का कूड़ा...किसी भी तरह की साफ़-सफ़ाई में जोडी को कोई शर्म महसूस नहीं होती. वे भारत में रहकर यही काम करते रहना चाहती हैं और फिलहाल उनकी प्राथमिकता उत्तराखंड है.-----

Thursday 27 June 2013

वक्त की गर्द में दबे थे जिंदगी के रास्ते---- देवेंद्र रावत।

एक प्रयास ---------


flood
वक्त की गर्द में दबे थे जिंदगी के रास्ते











 डामर रोड पर फैली आधुनिकता की चकाचौंध ऐन वक्त दगा दे गई तो काम आई वो बिसरा दी गई पगडंडी, जिस पर कभी भगवान बदरीविशाल के दर्शनों के लिए आस्था का सैलाब उमड़ता था। 
इसी पगडंडी पर चल 1959 में देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जोशीमठ से बदरीनाथ पहुंचे और 1970 में जयप्रकाश नारायण। ये अलग बात है कि 1971 के बाद से सुविधाभोगी समाज के साथ ही सरकार भी इन राहों को भूल गई। 
कुदरत की लीला से अक्सर दो-चार होने वाले पहाड़ों में शायद नीति-नियंताओंने ऐसी तबाही की कल्पना नहीं की और इन रास्तों पर वक्त की गर्द के साथ कांटे भी उग आए। 
यदि सरकार ने ध्यान दिया होता के आपदा के वक्त स्थिति इतनी भयावह न होती।
दरअसल अब सेना बदरीनाथ में फंसे हजारों यात्रियों को इसी रास्ते से जोशीमठ पहुंचा रही है। 
सेना ने मामूली मरम्मत के बाद इसे चलने लायक बना दिया है। हालांकि सुरक्षा की दृष्टि से इस मार्ग पर चलने वालों को रस्सी भी पकड़नी पड़ रही है। 
इतिहास में झांकने पर पता चलता है कि 1825 में ब्रिटिश सरकार ने अलकनंदा नदी के दोनों ओर ऋषिकेश से बदरीनाथ तक इस मार्ग का निमार्ण कराया था। 
इतना ही नहीं, ब्रिटिश सरकार ने वैकल्पिक मार्गो की ओर भी पूरा ध्यान दिया। 
आपात स्थिति को ध्यान में रखते हुए कर्णप्रयाग से कुमाऊं के अल्मोड़ा जिले के चाखुटिया तक भी पैदल मार्ग बनाया गया था । 
ताकि अगर रास्ता बंद हो तो कुमाऊं के रास्ते यात्री अपने घरों को जा सकें। यात्रियों के विश्राम के लिए पांच से दस किलोमीटर की दूरी पर चट्टियां बनाई गई थी । पहली चट्टी ऋषिकेश के पास ब्सासघाट और अंतिम चट्टी हनुमानचट्टी हुआ करती थी। 
सुरक्षा की दृष्टि से चट्टियां नदी के तल से 500 मीटर ऊपर होती थीं। हर चटटी में रैन बसेरे थे। इन्हीं में एक थी काली कमली धर्मशाला। 
यहां प्रतिदिन सुबह और शाम निशुल्क खिचड़ी दी जाती थी। जो लोग अलग खाना पकाना चाहते थे, उन्हें बर्तन भी मुहैया कराए जाते।
1965 में बदरीनाथ तक सड़क पहुंची। 
इसके बाद भी 1971 तक इस मार्ग पर आवाजाही जारी रही। हालांकि तब गरीब या साधु संत ही ज्यादातर आते-जाते थे। इस बीच 1971 में अलकनंदा की बाढ़ से यह रास्ता क्षतिग्रस्त हो गया।
 इसके बाद यह रास्ता भुला दिया गया। पर्यावरणविद् चंडी प्रसाद भट्ट कहते हैं 'काश हममें थोड़ी दूरदर्शिता होती तो ये रास्ते यूं बिसराए न जाते। 
सरकार को चाहिए कि इसे ट्रैकिंग रूट के रूप में विकसित कर हर समय ठीक रखा जाए।' 
साहित्यकार शिवराज सिंह निसंग कहते हैं 'आधुनिकता का अर्थ परंपराओं को छोड़ना तो नहीं है। हमें इस ओर ध्यान देना होगा'

उपाय

एक प्रयास ---------

अब रुपये को ऊपर उठाने का एक ही उपाय नज़र आता है !!!
क्यों ना हम सभी भारतीय , अमेरिकी डॉलर को रुपया कहना शुरू कर दे 
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----नमन ---

एक प्रयास ---------
आइये वन्दे मातरम के रचनाकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय की जयंती पर नत मस्तक हो नमन करे | 
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपनी लेखनी द्वारा योगदान देने वाले बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय की जयंती पर भावभीनी श्रद्धांजलि 
वन्दे मातरम्.......................




Monday 24 June 2013

बाढ़ के बीच कैसे बचा केदारनाथ मंदिर?----डॉ खड्ग सिंह वल्दिया मानद प्रोफेसर, जेएनसीएएसआर

एक प्रयास ---------

नदियों के फ्लड वे में बने गाँव और नगर बाढ़ में बह गए.
आख़िर उत्तराखंड में इतनी सारी बस्तियाँ, पुल और सड़कें देखते ही देखते क्यों उफनती हुई नदियों और टूटते हुए पहाड़ों के वेग में बह गईं?
जिस क्षेत्र में भूस्खलन और बादल फटने जैसी घटनाएँ होती रही हैं, वहाँ इस बार इतनी भीषण तबाही क्यों हुई?

अंधाधुंध निर्माण की अनुमति देने के लिए सरकार ज़िम्मेदार है. वो अपनी आलोचना करने वाले विशेषज्ञों की बात नहीं सुनती. यहाँ तक कि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के वैज्ञानिकों की भी अच्छी-अच्छी राय पर सरकार अमल नहीं कर रही है.उत्तराखंड की त्रासद घटनाएँ मूलतः प्राकृतिक थीं. अति-वृष्टि, भूस्खलन और बाढ़ का होना प्राकृतिक है. लेकिन इनसे होने वाला क्लिक करेंजान-माल का नुकसान मानव-निर्मित हैं.
वैज्ञानिक नज़रिए से समझने की कोशिश करें तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इस बार नदियाँ इतनी कुपित क्यों हुईं.
नदी घाटी काफी चौड़ी होती है. बाढ़ग्रस्त नदी के रास्ते को फ्लड वे (वाहिका) कहते हैं. यदि नदी में सौ साल में एक बार भी बाढ़ आई हो तो उसके उस मार्ग को भी फ्लड वे माना जाता है. इस रास्ते में कभी भी बाढ़ आ सकती है.
लेकिन क्लिक करेंइस छूटी हुई ज़मीन पर निर्माण कर दिया जाए तो ख़तरा हमेशा बना रहता है.

नदियों का पथ


नदियों के फ्लड वे में बने गाँव और नगर बाढ़ में बह गए.
केदारनाथ से निकलने वाली मंदाकिनी नदी के दो फ्लड वे हैं. कई दशकों से मंदाकिनी सिर्फ पूर्वी वाहिका में बह रही थी. लोगों को लगा कि अब मंदाकिनी बस एक धारा में बहती रहेगी. जब मंदाकिनी में बाढ़ आई तो वह अपनी पुराने पथ यानी पश्चिमी वाहिका में भी बढ़ी. जिससे उसके रास्ते में बनाए गए सभी निर्माण बह गए.
क्लिक करेंकेदारनाथ मंदिर इस लिए बच गया क्योंकि ये मंदाकिनी की पूर्वी और पश्चिमी पथ के बीच की जगह में बहुत साल पहले ग्लेशियर द्वारा छोड़ी गई एक भारी चट्टान के आगे बना था.
नदी के फ्लड वे के बीच मलबे से बने स्थान को वेदिका या टैरेस कहते हैं. पहाड़ी ढाल से आने वाले नाले मलबा लाते हैं. हजारों साल से ये नाले ऐसा करते रहे हैं.
पुराने गाँव ढालों पर बने होते थे. पहले के किसान वेदिकाओं में घर नहीं बनाते थे. वे इस क्षेत्र पर सिर्फ खेती करते थे. लेकिन अब इस वेदिका क्षेत्र में नगर, गाँव, संस्थान, होटल इत्यादि बना दिए गए हैं.
यदि आप नदी के स्वाभाविक, प्राकृतिक पथ पर निर्माण करेंगे तो नदी के रास्ते में हुए इस अतिक्रमण को हटाने के बाढ़ अपना काम करेगी ही. यदि हम नदी के फ्लड वे के किनारे सड़कें बनाएँगे तो वे बहेंगे ही.

विनाशकारी मॉडल


पहाडं में सड़कें बनाने के ग़लत तरीके विनाश को दावत दे रहे हैं.
मैं इस क्षेत्र में होने वाली सड़कों के नुकसान के बारे में भी बात करना चाहता हूँ.
पर्यटकों के लिए, तीर्थ करने के लिए या फिर इन क्षेत्रों में पहुँचने के लिए सड़कों का जाल बिछाया जा रहा है. ये सड़कें ऐसे क्षेत्र में बनाई जा रही हैं जहां दरारें होने के कारण भू-स्खलन होते रहते हैं.
इंजीनियरों को चाहिए था कि वे ऊपर की तरफ़ से चट्टानों को काटकर सड़कें बनाते. चट्टानें काटकर सड़कें बनाना आसान नहीं होता. यह काफी महँगा भी होता है. भू-स्खलन के मलबे को काटकर सड़कें बनाना आसान और सस्ता होता है. इसलिए तीर्थ स्थानों को जाने वाली सड़कें इन्हीं मलबों पर बनी हैं.
ये मलबे अंदर से पहले से ही कच्चे थे. ये राख, कंकड़-पत्थर, मिट्टी, बालू इत्यादि से बने होते हैं. ये अंदर से ठोस नहीं होते. काटने के कारण ये मलबे और ज्यादा अस्थिर हो गए हैं.
इसके अलावा यह भी दुर्भाग्य की बात है कि इंजीनियरों ने इन सड़कों को बनाते समय बरसात के पानी की निकासी के लिए समुचित उपाय नहीं किया. उन्हें नालियों का जाल बिछाना चाहिए था और जो नालियाँ पहले से बनी हुई हैं उन्हें साफ रखना चाहिए. लेकिन ऐसा नहीं होता.
हिमालय अध्ययन के अपने पैंतालिस साल के अनुभव में मैंने आज तक भू-स्खलन के क्षेत्रों में नालियाँ बनते या पहले के अच्छे इंजीनियरों की बनाई नालियों की सफाई होते नहीं देखा है. नालियों के अभाव में बरसात का पानी धरती के अंदर जाकर मलबों को कमजोर करता है. मलबों के कमजोर होने से बार-बार भू-स्खलन होते रहते हैं.
इन क्षेत्रों में जल निकास के लिए रपट्टा (काज़ वे) या कलवर्ट (छोटे-छोटे छेद) बनाए जाते हैं. मलबे के कारण ये कलवर्ट बंद हो जाते हैं. नाले का पानी निकल नहीं पाता. इंजीनियरों को कलवर्ट की जगह पुल बनने चाहिए जिससे बरसात का पानी अपने मलबे के साथ स्वत्रंता के साथ बह सके.

हिमालयी क्रोध


भू-वैज्ञानिकों के अनुसार नया पर्वत होने के कारण हिमालय अभी भी बढ़ रहा है.
पर्यटकों के कारण दुर्गम इलाकों में होटल इत्यादि बना लिए गए हैं. ये सभी निर्माण समतल भूमि पर बने होते है जो मलबों से बना होती है. नाले से आए मलबे पर मकानों का गिरना तय था.
हिमालय और आल्प्स जैसे बड़े-बड़े पहाड़ भूगर्भीय हलचलों (टैक्टोनिक मूवमेंट) से बनते हैं. हिमालय एक अपेक्षाकृत नया पहाड़ है और ये अभी भी उसकी ऊँचाई बढ़ने की प्रक्रिया में है.
हिमालय अपने वर्तमान वृहद् स्वरूप में करीब दो करोड़ वर्ष पहले बना है. भू-विज्ञान की दृष्टि से किसी पहाड़ के बनने के लिए यह समय बहुत कम है. हिमालय अब भी उभर रहा है, उठ रहा है यानी अब भी वो हरकतें जारी हैं जिनके कारण हिमालय का जन्म हुआ था.
हिमालय के इस क्षेत्र को ग्रेट हिमालयन रेंज या वृहद् हिमालय कहते हैं. संस्कृत में इसे हिमाद्रि कहते हैं यानी सदा हिमाच्छादित रहने वाली पर्वत श्रेणियाँ. इस क्षेत्र में हजारों-लाखों सालों से ऐसी घटनाएँ हो रही हैं. प्राकृतिक आपदाएँ कम या अधिक परिमाण में इस क्षेत्र में आती ही रही हैं.
केदारनाथ, चौखम्बा या बद्रीनाथ, त्रिशूल, नन्दादेवी, पंचचूली इत्यादि श्रेणियाँ इसी वृहद् हिमालय की श्रेणियाँ हैं. इन श्रेणियों के निचले भाग में, करीब-करीब तलहटी में कई लम्बी-लम्बी झुकी हुई दरारें हैं. जिन दरारों का झुकाव 45 डिग्री से कम होता है उन्हें झुकी हुई दरार कहा जाता है.

कमज़ोर चट्टानें


कमजोर चट्टानें बाढ़ में सबसे पहले बहती हैं और भारी नुकसान करती हैं.
वैज्ञानिक इन दरारों को थ्रस्ट कहते हैं. इनमें से सबसे मुख्य दरार को भू-वैज्ञानिक मेन सेंट्रल थ्रस्ट कहते हैं. इन श्रेणियों की तलहटी में इन दरारों के समानांतर और उससे जुड़ी हुई ढेर सारी थ्रस्ट हैं.
इन दरारों में पहले भी कई बार बड़े पैमाने पर हरकतें हुईं थी. धरती सरकी थी, खिसकी थी, फिसली थीं, आगे बढ़ी थी, विस्थापित हुई थी. परिणामस्वरूप इस पट्टी की सारी चट्टानें कटी-फटी, टूटी-फूटी, जीर्ण-शीर्ण, चूर्ण-विचूर्ण हो गईं हैं. दूसरों शब्दों में कहें तो ये चट्टानें बेहद कमजोर हो गई हैं.
इसीलिए बारिश के छोटे-छोटे वार से भी ये चट्टाने टूटने लगती हैं, बहने लगती हैं. और यदि भारी बारिश हो जाए तो बरसात का पानी उसका बहुत सा हिस्सा बहा ले जाता है. कभी-कभी तो यह चट्टानों के आधार को ही बहा ले जाता है.
भारी जल बहाव में इन चट्टानों का बहुत बड़ा अंश धरती के भीतर समा जाता है और धरती के भीतर जाकर भीतरघात करता है. धरती को अंदर से नुकसान पहुँचाता है.
इसके अलावा इन दरारों के हलचल का एक और खास कारण है. भारतीय प्रायद्वीप उत्तर की ओर साढ़े पांच सेंटीमीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से सरक रहा है यानी हिमालय को दबा रहा है. धरती द्वारा दबाए जाने पर हिमालय की दरारों और भ्रंशों में हरकतें होना स्वाभाविक है.

एक था मंदिर

एक प्रयास ---------केदारनाथ मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है। उत्तराखण्ड में हिमालय पर्वत की गोद में केदारनाथ मन्दिर बारह ज्योतिर्लिंग में सम्मिलित होने के साथ चार धाम और पंच केदार में से भी एक है। 
यहाँ की प्रतिकूल जलवायु के कारण यह मन्दिर अप्रैल से नवंबर माह के मध्‍य ही दर्शन के लिए खुलता है। 
पत्‍थरों से बने कत्यूरी शैली से बने इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि 
इसका निर्माण पाण्डव वंश के जनमेजय ने कराया था। 
यहाँ स्थित स्वयम्भू शिवलिंग अति प्राचीन है। 


इस मन्दिर की आयु के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, 
पर एक हजार वर्षों से केदारनाथ एक महत्वपूर्ण तीर्थ रहा था । 
राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये १२-१३वीं शताब्दी का है। 
ग्वालियर से मिली एक राजा भोज स्तुति के अनुसार उनका बनवाया हुआ है जो १०७६-९९ काल के थे। 
एक मान्यतानुसार वर्तमान मंदिर ८वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा बनवाया गया जो पांडवों द्वारा द्वापर काल में बनाये गये पहले के मंदिर की बगल में है। 
मंदिर के बड़े धूसर रंग की सीढ़ियों पर पाली या ब्राह्मी लिपि में कुछ खुदा है, जिसे स्पष्ट जानना मुश्किल है। 
फिर भी इतिहासकार डॉ शिव प्रसाद डबराल मानते है कि शैव लोग आदि शंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं। 
१८८२ के इतिहास के अनुसार साफ अग्रभाग के साथ मंदिर एक भव्य भवन था जिसके दोनों ओर पूजन मुद्रा में मूर्तियाँ हैं। “पीछे भूरे पत्थर से निर्मित एक टॉवर है इसके गर्भगृह की अटारी पर सोने का मुलम्मा चढ़ा है। 
मंदिर के सामने तीर्थयात्रियों के आवास के लिए पण्डों के पक्के मकान थे । 
जबकि पुजारी या पुरोहित भवन के दक्षिणी ओर रहते थे । 
केदारनाथ की बड़ी महिमा है। उत्तराखण्ड में बद्रीनाथ और केदारनाथ-ये दो प्रधान तीर्थ हैं, 
दोनो के दर्शनों का बड़ा ही महत्त्व है। केदारनाथ के संबंध में लिखा है कि जो व्यक्ति केदारनाथ के दर्शन किये बिना बद्रीनाथ की यात्रा करता है, उसकी यात्रा निष्फल जाती है और केदारनापथ सहित नर-नारायण-मूर्ति के दर्शन का फल समस्त पापों के नाश पूर्वक जीवन मुक्ति की प्राप्ति बतलाया गया है।


यह मन्दिर एक छह फीट ऊँचे चौकोर चबूतरे पर बना हुआ था । 
मन्दिर में मुख्य भाग मण्डप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ था । बाहर प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। 
सब ठीक ही चल रहा था लेकिन इश्वर की महिमा महान है कौन जाने कब क्या हो जाए .??
जून २०१३ हमेशा की तरह लाखों लोग चारों धाम की यात्रा पर निकल पड़े और १६-१७ जून को आई आसमानी विपदा ने सारे समीकरण बिगाड़ दिए बाढ़ और भूस्खलन ने सबसे ज़्यादा तबाही केदारनाथ में मची
मंदिर की दीवारें गिर गई और बाढ़ में बह गयी।
इस ऐतिहासिक मन्दिर का मुख्य हिस्सा और सदियों पुराना गुंबद सुरक्षित रहे 
लेकिन मन्दिर का प्रवेश द्वार और उसके आस-पास का इलाका पूरी तरह तबाह हो गया।
राज्य के गोविंदघाट में राहत और बचाव कार्य के दौरान सैनिक अलकनंदा नदी पर बने एक अस्थायी पुल की मरम्मत करने की कोशिश कर रहे हैं. ये पुल भयावह बाढ़ और भूस्खलन के बाद बर्बाद हो गया है.





हज़ारो लोग सैलाब में बह गए ,हज़ारो ने मलबे में दब कर दम तोड़ दिया | अपनों ने अपनों को बहते देखा ,दम तोड़ते देखा लेकिन कोई कुछ नहीं कर पाया ...उन्हें वहीँ छोड़ आना पडा उनमें नन्हे बच्चे भी हैं ,युवा भी और बुज़ुर्ग भी ........दिल पर पत्थर रख अपने  -अपने कलेजे के टुकड़ों को छोड़ आये हैं इश्वर के दरबार में .......कैसी विडम्बना है अंतिम संस्कार भी किस्मत मैं नहीं .......
 उत्तराखंड में बहुत सारी बस्तियाँ, पुल और सड़कें देखते ही देखते उफनती हुई नदियों और टूटते हुए पहाड़ों के वेग में बह गए 

 प्राकृतिक आपदा आए क़रीब एक हफ़्ता होने वाला है. भारतीय सेना और वायु सेना के जवान चार धाम की यात्रा करने आए तीर्थयात्रियों को बचाने की कोशिश में जुटे हुए हैं. कई जगह तो ऐसी हैं, जहां अलकनंदा नदी के इस पार से उस पार तक जाने का कोई ज़रिया ही नहीं बचा है. सेना के जवान रस्सियों के सहारे बाढ़ के पानी से उफ़न रही नदी के ऊपर से लोगों को दूसरी तरफ़ भेजने की कोशिश कर रहे हैं.









रास्ते में चढ़ाई करते वक्त कई श्रद्धालुओं की तबीयत नासाज़ हो रही है. कई बार उनकी हिम्मत जवाब देने लगती है, लेकिन सेना के जवान उनकी हौसला-अफ़ज़ाई में कोई कसर नहीं छोड़ रहे.

कई लोग क्लिक करेंउत्तराखंड के बाढ़ प्रभावित इलाके से निकलकर सुरक्षित अपने-अपने राज्यों में पहुंच चुके हैं. घर वालों से मिलकर और मौत के मुंह से सकुशल बच आने के बावजूद उन्हें यक़ीन नहीं हो रहा है


 केदार नाथ मंदिर पर तबाही के बाद मंदिर का सिर्फ मूल रूप बचा है और हर तरफ दिल दहलाने वाला मंज़र है .....हज़ारो लोगो की लाशें इधर -उधर बिखरी हैं .........तबाही की हैं सबकी अपनी कहानी देश भर से हज़ारो गायब हैं , हज़ारों फंसे हैं .....जगह -जगह , सेना के हर जवान को सलाम जो लगे हैं दिन-रात बचाव में 
केदारनाथ मंदिर की आज की तस्वीर दाहिनी ओर और एक हफ़्ते पहले की बाईं ओर








Thursday 20 June 2013

अब कौन कहेगा ! तार आया है... अलविदा तार


एक प्रयास ---------
  • भारत में टेलीग्राम सेवा की शुरुआत 160 साल पहले हुई थी. 
    लेकिन अब उसे बंद करने का फैसला किया गया है. 
    माना जा रहा है कि अब इस सेवा की उपयोगिता बहुत ही सीमित रह गई है. 
    खासकर भारत में टेलीफोन सेवाओं के विस्तार, 
    मोबाइल टेक्नॉलॉजी और एसएमएस जैसी सेवाओं ने टेलीग्राम की जरूरत को कम कर दिया है.
  • सरकार ने तय किया है कि भारत में 15 जुलाई से टेलीग्राम सेवा बंद कर दी जाएगी. 
    फिलहाल भारत में 75 ऐसे केंद्र हैं 
    जहाँ टेलीग्राम सेवा की सुविधा उपलब्ध है और
     तकरीबन एक हजार कर्मचारी इसमें काम कर रहे हैं. 
    हालांकि इसकी हालत खस्ताहाल ही है.
  • अधिकारियों का कहना है कि भारत में तकरीबन पाँच हजार टेलीग्राम रोज भेजे जाते हैं. 
    इस सेवा का इस्तेमाल ज्यादातर सरकारी महकमे ही करते हैं. 
    और अधिकारियों के मुताबिक किसी की मृत्यु हो जाने के मामले में 
    उसके सगे संबंधियों को सूचित करने के लिए तार का इस्तेमाल ज्यादातर किया जाता है.
  • 90 के दशक के मध्य तक पत्रकार लोग टेलीग्राम से खबरे भेजा करते थे. 
    एक अखबार के संपादक ने याद दिलाया कि उनकी कोई खबर 22 पन्नों में सिमटी थी 
    और उसे तार से भेजा गया था. डेस्क पर काम करने वाले संपादकीय 
    कर्मचारियों को उसे पढ़ने लायक बनाने में खासी मशक्कत करनी पड़ी थी.
  • साल 2011 में सरकार ने 60 सालों में पहली बार टेलीग्राम शुल्क में इजाफा किया था. 
    अभी किसी ग्राहक को इस सेवा से 50 शब्द भेजने के लिए 27रुपए खर्च करने पड़ेंगे.
  • हालांकि इस सेवा में भी तकनीकी बदलाव किए गए.
     ऑपरेटर भेजे जाने वाले संदेश को कंप्यूटर में फीड कर के आगे भेजता है 
    और उन संदेशों को स्थानीय डाकघर और डाकिए के माध्यम से मंजिल तक पहुँचाया जाता है.
  • एक टेलीग्राम स्टाफ तार के संदेशों की प्रिट आउट को देखता हुआ.
  • भारत में टेलीग्राम सेवाओं की शुरुआत 1854 में हुई थी. 
    उसके चार साल बाद टेलीग्राम लाइन तत्कालीन कलकत्ता शहर 
    और उपनगरीय इलाके डायमंड हार्बर के बीच स्थापित किया गया था.
  • सरकारी अधिकारियों की योजना है कि टेलीग्राम सेवा को 
    आधिकारिक विदाई दी जाएगी और 
    सबसे आखिरी टेलीग्राम को म्यूज़ियम के लिए सुरक्षित रखा जाएगा.

एक संकट वो भी

एक प्रयास ---------

आज उत्तराखण्ड में आये संकट ने मुझे भी एक ऐसी ही बीती घडी याद दिला दी 
छोटी थी में पर याद है परेशानी में घिरे कुछ चेहरे 
अमरनाथ यात्रा में शामिल होने वालों के लिए प्रकृति मित्र नहीं रहती है 
क्यों कि मौसम भी बरसात का होता है   |  आज तो फिर भी बहुत सुविधा हैं लेकिन 
1969 में अमरनाथ की यात्रा बहुत  कठिन और बड़ी ही दुर्गम थी 
तब हम लोग नकुड (सहारनपुर) में रहते थे वहां से बस गयी थी तो मेरी दादी भी गयी थी करीब २०-२५ जानकार लोग थे ख़ुशी -ख़ुशी सब विदा हुए लेकिन जल्द ही ये ख़ुशी काफूर हो गयी 
 जब अचानक पता चला बर्फीला तूफ़ान आया है और सब लोग बीच रास्ते में ही कहीं फंस गए थे अमरनाथ पहुँच ही नही पाए ..........तब ये समाचार रेडियो पर सुना था ..............ना फोन थे ना TV.......ना ही कोइ और माध्यम , 
मम्मी -पिताजी बेहद चिंतित रहते थे बस इतना ही याद है  
जिनके लोग गए थे सब बेहद परेशान रहते थे क्या करे कहाँ जाएँ ..????.........
मुझे याद है कई दिन ऐसे ही कटे थे ,कौन कहाँ हैं ..!!
कैसा है कुछ पता नही था 
आस-पास के भी सभी लोग इकट्ठे होकर हर समय रेडियो सुनते रहते थे 
और कई दिन बाद सरकारी हेलिकोप्टर से वापस आई अपनी यात्रा आधी -अधूरी छोड़ कर .............जो फिर कभी पूरी नहीं कर पायी .........और कुछ ख़ास याद नहीं.....हाँ उनके लाये उपहार याद हैं अन्य कई चीज़ों के साथ कांगड़ी और मीठे नरम बब्बूगोसे ..............................समझ सकती हूँ यात्रियों के परिजन घर बैठे कैसे आकुल हो रहे होंगे ...
कैसे समय काट रहे होंगे ......अब जो जिस हाल में है कम से कम घर तो आये ....

Wednesday 19 June 2013

गंगा प्रहार या घर भरो अभियान

एक प्रयास ---------
आपदा 
सहायतार्थ हज़ारों करोड धन राशि 
कागजों में खाना - पूरी 
लखपति बनेंगे करोडपति -----

जिसने द्वितीय विश्वयुद्ध में तबाही मचाई बुधवार, 12 जून, 2013

एक प्रयास ---------
  • द्वितीय विश्वयुद्ध में इस्तेमाल जर्मन बमबर्षक विमान ड्रोनियर डीओ-17 के अवशेष को इंग्लिश चैनल से बाहर निकाला गया. इंग्लिश चैनल के केंट कोस्ट में इस विमान का अवशेष 70 सालों से पड़ा हुआ था.
  • विशेषज्ञों के मुताबिक ये विमान ड्रोनियर डीओ-17 बमबर्षक विमानों की सीरीज़ का बचा हुआ इकलौता विमान है. इस विमान का एक पंख नष्ट हो चुका है. इसे क्रेन के सहारे बाहर निकाला गया है.
  • विमान के मलबे का काफी कुछ हिस्सा गायब है. इस विमान को 26 अगस्त 1940 को निशाना बनाया गया था. चालक दल के चार सदस्यों में दो की मौत हो गई थी, जबकि पायलट सहित दो लोगों को युद्ध बंदी बनाया गया था.
  • इस विमान के मलबे को पहली बार गोताखोरों ने 2008 में तलाशा. इसके बाद नेशनल हेरिटेज़ मेमोरियल फंड (एनएचएमएफ) ने तीन लाख 45 हज़ार पाउंड का अनुदान देकर आरएएफ म्यूज़ियम को इस मलबे को बाहर निकालने का काम सौंपा. हालांकि ख़राब मौसम के चलते कई सप्ताह तक ये काम अटका रहा.
  • ड्रोनियर के प्रोपलर बताते हैं कि हादसे के दौरान विमान को कितना नुकसान पहुंचा होगा. दुर्घटनाग्रस्त विमान का प्रोपलर तस्वीर में दिख रहा है.
  • बताया जा रहा है कि विमान के मलबे को एक नाव के द्वारा आने वाले मंगलवार को रामसगेट बंदरगाह पर ले जाया जाएगा. मलबे को जंग लगने से बचाने के लिए साइट्रिक एसिड और सोडियम हाइड्रॉक्साइड के मिश्रण का छिड़काव करेंगे. इसके बाद इस विमान को उत्तरी लंदन स्थित आरएएफ म्यूज़ियम में प्रदर्शन के लायक बनाया जाएगा.

Wednesday 12 June 2013

यादे ना जाएँ बीते दिनों की.................

एक प्रयास --------

आज जो भी वर्णन करने जा रही हूँ  काश !! मेरे पास उस समय के चित्र होते !!!!!....

हमारे तो नही हाँ दादा -दादी और मम्मी -पिताजी के पुराने चित्र ज़रूर मिलेंगे 

आज जब हमारे बच्चे छुट्टियों में अपनी दादी के घर से नानी के यहाँ जाते हैं 


तो मुझे अपना बचपन याद आता है .

हम लोग में रुड़की रहते थे तो छुट्टियां होते ही गाँव दादी के पास जाने का मन होता था 


दो बुआजी, दो ताईजी के परिवार और हम सब मिला कर कोइ १५ -२० लोग गाँव पहुँचते थे 


जिया (दादी ) और बाबा 


६-७ घंटे की यात्रा करके हम पहले बुलंदशहर आते रात में ताईजी के यहाँ रूकते 
और फिर सुबह 


वो लोग भी हमारे साथ गाँव जाते थे , 
हमारा गाँव स्याना से बुगरासी जाने वाली सड़क पर रास्ते में पड़ता था , 

 हम रास्ते में कोटरा के पुल पर उतर जाते 


बस के बाद थोड़ा रास्ता बम्बे के सहारे -सहारे पैदल  तय कर अपने घर पहुँच जाते

बहुत बड़ा घर था हमारा

अपनी खेती भी थी कई खेत थे , 

पिता कानूनगो से तहसीलदारी तक नौकरी में रहे



और झांसी के पास बबेरू से तहसीलदार के पद से रिटायर हुए 

दादी रहती थी वहाँ एक गाय थी घर पर और कोई ना कोई बहनों में से उनके  पास रहता था |


कभी में , कभी कोई बहन 


बड़ा सा आँगन था ....

एक और कोने में ढेर सारी जगह में तुलसा जी विराजमान थी |

 एक कोना गाय के लिए था और बाकी जगह पर अपना साम्राज्य था 

पिताजी गाँव में 


गाँव में बिजली नही थी लेकिन कच्ची छत और पक्की दीवार वाला अपना घर बहुत बड़ा था 

चूल्हे पर खाना बनता था और ये दायित्व घर की सभी महिलायें उठाती थी.......

सुबह दूर तक खुले खेतों में घूमना ......

आस -पास के बच्चों से हमारी बहुत अच्छी दोस्ती थी 

कहीं किसी के यहाँ मट्ठा मिल गया तो पी लिया .

गाँव में सब बहुत प्यार से मिलते हाल -चाल पूंछते....घर आ कर नल के ठन्डे पानी से नहाना 


उसके बाद  कभी परांठे - अचार , कभी दलिया और कभी उबले चने का नाश्ता खाते ........


और फिर पूरी दोपहर कैरम , ताश , लूडो और गिट्टू खेलते ......एक खेल और लूडो की तरह होता 


..ज़मीन पर बनाते और उसे अष्टा -चक्कन कहते .........


खूब लड़ाई -झगडा और धमाल मचता एक ट्रंक में सरिता , कादम्बिनी और नंदन वगेरह भी थी 


ये मेरे पिता का बहुत पुराना उस समय का पुस्तकालय था जब वो गाँव अक्सर आते रहते

 जो पत्रिका ले आये वहीँ छोड़ दी ....


जिसे दादी संभाल कर ट्रंक में रख देती और अब हम सब जम कर उनका लुत्फ़ उठाते .....


जहाँ ट्रंक रखा होता वहाँ अन्धेरा सा रहता तो हम एक -दूसरे को लेकर जाते और अपनी पसंद की 


पुस्तक ले आते ......



नानाजी सगाई के समय पिताजी का टीका करते हुए 


















शाम को छत पर छिडकाव कर बिस्तर लग जाते ,खाना जल्द ही निबट जाता क्यों कि लाईट तो 


थी नही दो -तीन लालटेन जलती थी........

उनमें से एक बड़ी लालटेन पूरे साल तो आराम करती उसे बड़े संभाल कर रखा जाता था और वो 

तभी निकलती जब सब लोग आ जाते थे ........ये लालटेन उन्हें यानि दादी को किसी ने दुबई से 


लाकर दी थी और उसकी चिमनी यहाँ नही मिलती थी इस लिए उसे बहुत संभाल कर रखती थीं


 .........कई चारपाई आँगन में बिछती और बाकी लोग ऊपर छत पर सोते थे .............


सोने से पहले बड़ी बुआजी और छोटे ताउजी से कहानी सुनते थे और नियम ये था कि सुनते समय 


हुंकारा भरना ज़रूरी था .............

दिन भर के थके हारे सब के सब धीरे -धीरे कहानी सुनते -सुनते 

ही लुढक जाते ........


मम्मी पिताजी 










कई बार दिन में तरबूज-खरबूज ले कर आते और मज़े से खाते 


वहाँ पैसे से ही नहीं अनाज से भी सामान मिलता था हम भी अनाज ले जाते


और ढेर सारे खरबूज तरबूज और आम ले आते ........

ये सिलसिला आये दिन चलता रहता 

घर के बराबर में मंदिर था वहाँ एक नीम का बहुत पुराना पेड़ जिसकी छाया हमारे आधे आँगन को


 भी घेरे रहती थी.


उस पर झूला डाल जेठ -बैसाख में ही सावन का मज़ा लेते ........


गाँव में जो बम्बा था वहां सभी ब्राह्मण परिवारों के घेर (जहाँ जानवर आदि बांधे जाते हैं) थे 

हम बम्बे में नहाने जाते ......कभी बता कर और कभी चोरी -चोरी 

यदि चोरी से जाते तो भेद खुल ही जाता  ..........कोई ना कोई  लड़ाई होने पर बता ही देता था 


और फिर जम कर डांट पड़ती लेकिन हम पर कहाँ असर होता हम तो एक कान से सुना दूसरे से 


निकाला  ....यदि बता कर जाते तो घर से घी नमक लगा कर रोटी ले जाते और नहाने के बाद 


खाते थे .....अगर किसी ने आम दे दिए तो पूछो मत सोने पर सुहागा


और ऐसी खातिर दारी अक्सर होती ही रहती थी.............


दादी का बड़ा सम्मान था गाँव में .


पिताजी जिया के साथ 





कुल मिला कर ये कि बीस -बाइस दिन कैसे हवा हो जाते थे पता ही नही चलता था ..............

जाने का दिन आ जाता .........


सबके बोरिया बिस्तर बांध जाते और सब चल पड़ते थे अगले साल 

तक के लिए यादों का गट्ठर बाँध अपने -अपने गंतव्य की ओर........


ये सिलसिला सालों -साल चलता रहा फिर जब दादी बीमार हो कर हमारे पास आ गयीं तो गाँव 


का घर बंद हो गया 


फिर एक बरसात में गिर भी गया और सारा सामान दब गया था लेकिन मलवे से जरूरी सामान 


निकाल लिया गया ,फिर घर में दो कमरे बनवाये गए क्यों कि मम्मी को अक्सर खेती के सिलसिले में गाँव जाना पड़ता था 


जब दादी नही रही तो सारी ज़मीन बेच दी क्यों कि फायदा कम और नुक्सान ज़्यादा हो रहा था


घर एक आत्मीय परिवार को दे दिया रहने के लिए .........

आज भी उनके संपर्क में हैं हम आज भी अगर गाँव गए तो रहने और 


खाने की परेशानी नही होगी इतना विश्वास है ..


अब माता -पिता कोई रहे नही गाँव गए करीब तीस साल हो गए हैं .........


लेकिन एक हुक सी उठती है आज भी ........


और एक-एक याद बिलकुल साफ़ शीशे की तरह दिल के हर कोने में बसी है ...........