एक प्रयास ---------
डामर रोड पर फैली आधुनिकता की चकाचौंध ऐन वक्त दगा दे गई तो काम आई वो बिसरा दी गई पगडंडी, जिस पर कभी भगवान बदरीविशाल के दर्शनों के लिए आस्था का सैलाब उमड़ता था।
इसी पगडंडी पर चल 1959 में देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जोशीमठ से बदरीनाथ पहुंचे और 1970 में जयप्रकाश नारायण। ये अलग बात है कि 1971 के बाद से सुविधाभोगी समाज के साथ ही सरकार भी इन राहों को भूल गई।
कुदरत की लीला से अक्सर दो-चार होने वाले पहाड़ों में शायद नीति-नियंताओंने ऐसी तबाही की कल्पना नहीं की और इन रास्तों पर वक्त की गर्द के साथ कांटे भी उग आए।
यदि सरकार ने ध्यान दिया होता के आपदा के वक्त स्थिति इतनी भयावह न होती।
दरअसल अब सेना बदरीनाथ में फंसे हजारों यात्रियों को इसी रास्ते से जोशीमठ पहुंचा रही है।
सेना ने मामूली मरम्मत के बाद इसे चलने लायक बना दिया है। हालांकि सुरक्षा की दृष्टि से इस मार्ग पर चलने वालों को रस्सी भी पकड़नी पड़ रही है।
इतिहास में झांकने पर पता चलता है कि 1825 में ब्रिटिश सरकार ने अलकनंदा नदी के दोनों ओर ऋषिकेश से बदरीनाथ तक इस मार्ग का निमार्ण कराया था।
इतना ही नहीं, ब्रिटिश सरकार ने वैकल्पिक मार्गो की ओर भी पूरा ध्यान दिया।
आपात स्थिति को ध्यान में रखते हुए कर्णप्रयाग से कुमाऊं के अल्मोड़ा जिले के चाखुटिया तक भी पैदल मार्ग बनाया गया था ।
ताकि अगर रास्ता बंद हो तो कुमाऊं के रास्ते यात्री अपने घरों को जा सकें। यात्रियों के विश्राम के लिए पांच से दस किलोमीटर की दूरी पर चट्टियां बनाई गई थी । पहली चट्टी ऋषिकेश के पास ब्सासघाट और अंतिम चट्टी हनुमानचट्टी हुआ करती थी।
सुरक्षा की दृष्टि से चट्टियां नदी के तल से 500 मीटर ऊपर होती थीं। हर चटटी में रैन बसेरे थे। इन्हीं में एक थी काली कमली धर्मशाला।
यहां प्रतिदिन सुबह और शाम निशुल्क खिचड़ी दी जाती थी। जो लोग अलग खाना पकाना चाहते थे, उन्हें बर्तन भी मुहैया कराए जाते।
1965 में बदरीनाथ तक सड़क पहुंची।
इसके बाद भी 1971 तक इस मार्ग पर आवाजाही जारी रही। हालांकि तब गरीब या साधु संत ही ज्यादातर आते-जाते थे। इस बीच 1971 में अलकनंदा की बाढ़ से यह रास्ता क्षतिग्रस्त हो गया।
इसके बाद यह रास्ता भुला दिया गया। पर्यावरणविद् चंडी प्रसाद भट्ट कहते हैं 'काश हममें थोड़ी दूरदर्शिता होती तो ये रास्ते यूं बिसराए न जाते।
सरकार को चाहिए कि इसे ट्रैकिंग रूट के रूप में विकसित कर हर समय ठीक रखा जाए।'
साहित्यकार शिवराज सिंह निसंग कहते हैं 'आधुनिकता का अर्थ परंपराओं को छोड़ना तो नहीं है। हमें इस ओर ध्यान देना होगा'
बहुत ही शानदार जानकारी इस विषय में मिली.
ReplyDeleteरामराम.
धन्यवाद और राम -राम ताऊ
ReplyDeleteजानकारी के लिए धन्यवाद.
ReplyDeleteस्वागत निहार जी
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