एक प्रयास ---------
क्या आप किसी ऐसे गाँव का नाम जानते हैं जो सरकारी रिकॉर्ड में न हो,
क्या आप किसी ऐसे गाँव का नाम जानते हैं जो सरकारी रिकॉर्ड में न हो,
नक़्शे पर न हो, इसकी अपनी कोई पंचायत न हो, इसका विधान सभा में कोई प्रतिनिधि न हो?
ये बात किसी काल्पनिक गांव की नहीं है और न ही ये फिल्म ‘शोले’ के रामगढ़ गांव का भी ज़िक्र है.
मैं बिना पते वाले ऐसे ही एक गाँव से पिछले हफ्ते हो कर लौटा हूंमुंबई से 150 किलोमीटर दूर पहाड़ों में बसा है ये आसरा नगर गाँव. ये गांव कहने को तो पुणे जिले में है लेकिन लगता है कि ये समाज से बाहर आबाद है.
इसे अगर महाराष्ट्र के नक्शे पर देखने की कोशिश करें या फिर प्रशासन के रिकॉर्ड में इस गाँव के नाम को ढूँढने की कोशिश करें तो आप अपना समय ही बर्बाद करेंगे.
यहां कोई स्कूल नहीं है, कोई शिक्षक नहीं है. यहाँ कोई रोज़गार नहीं है. कोई दुकान नहीं है. कोई बाज़ार नहीं है. यहां कोई डाकिया भी नहीं आता . इस गांव का कोई सरपंच नहीं क्योंकि इसकी अपनी कोई पंचायत ही नहीं है. कोई खेती नहीं. मज़दूरी के लिए भी दूर के गाँवों में जाना पड़ता है.
मुश्किल जिंदगी
"मेरे पिता पिछले साल बारिश के मौसम में नीचे से पहाड़ों वापस घर आ रहे थे कि उनका पैर फिसल गया. हमने रात में उन्हें ढूंढ़ा लेकिन उनका कोई पता नहीं चला. अगले दिन सुबह उनका शव मिला."
हेमंत ढांगर, गांववासी
लगभग 200 आदिवासियों के इस गांव में घर तो हैं लेकिन असल में ये लोग बेघर हैं. गांव के आसपास पहाड़ हैं जिनमें बरसात की हरियाली पूरे माहौल को सुन्दर बना रही है.
गाँव में खड़े हो कर एहसास होता है कि या तो हम किसी फिल्म के सेट पर खड़े हैं या फिर किसी छोटे हवाई अड्डे की पट्टी पर जो ऊंचाई के कारण आसमान से बिलकुल करीब है.
गांव में प्रवेश करते ही आपको एक छोटा स्मारक मिलेगा जिसके ऊपर जन्म और मृत्यु की तिथि से समझ में आता है कि पिछले साल जब इस व्यक्ति कि मृत्यु हुई तब इनकी आयु 50 से भी कम थी. ये व्यक्ति 21 वर्षीय हेमंत ढांगर के पिता थे.
वो बताते हैं, “मेरे पिता पिछले साल बारिश के मौसम में नीचे से पहाड़ों वापस घर आ रहे थे कि उनका पैर फिसल गया. हमने रात में उन्हें ढूंढ़ा लेकिन उनका कोई पता नहीं चला. अगले दिन सुबह उनका शव मिला.”
गावंवालों की आम शिकयत थी.
पानी लाने या गांव से बाहर आने जाने में ऊपर से नीचे जाना और नीचे से ऊपर चलना पड़ता है जिसके दौरान कई बार लोगों के फिसलने की घटनाएं घटी हैं.
ये सुंदरता किस काम की
महिलाओं को पीने के पानी के लिए पहाड़ी से उतर कर जाना पड़ता है. इस दौरान कई हादसे भी हो चुके हैं.
इस गाँव के बच्चों को देख कर साफ पता लगता है कि वो कुपोषण का शिकार हैं.
गांव के एक निवासी आसरे कहते हैं, “बच्चों को खुराक सही नहीं मिलती. ग़रीबी के कारण. तो हमने गांव में सामूहिक तौर पर पैसे जमा करना शुरू किया है. हफ्ते में 200 रुपये जमा हो जाते हैं. इससे हम बच्चों के लिए दूध और दवाई का इंतज़ाम करते हैं.”
कॉलेज में पढने वाले हेमंत ढांगर इस गाँव के सब से अधिक शिक्षित व्यक्ति हैं. मैंने गांव की सुंदरता की तारीफ की तो वो मुस्कुराए और कहा, "ऐसी सुंदरता किस काम की, जब यहां न तो बिजली की सुविधा है, न ही पानी की.”
पीने और नहाने के लिए जिस पानी का इस्तेमाल किया जाता है, उसे गांववाले पहाड़ों से नीचे उतरकर वादी के तलाब से ऊपर लाते हैं.
हेमंत का कहना है कि गांव के लोगों को सरकार भूल गई है. "हमें ऐसा लगता है प्रशासन की नज़र में हमारा कोई वजूद नहीं है. ऐसा लगता है हमें समाज से बेदखल कर दिया गया है.”
क्यों हैं बेघर?
"हमने गांव में सामूहिक तौर पर पैसे जमा करना शुरू किया है हफ्ते में 200 रुपये जमा हो जाते हैं. इससे हम बच्चों के लिए दूध और दवाई का इंतज़ाम करते हैं."
गांववासी
इस स्थिति के बारे में हमने राज्य सरकार के आदिवासी कल्याण मंत्रालय से संपर्क करने को कोशिश कि लेकिन उनकी प्रतिक्रिया नहीं मिल सकी.
दरअसल पांच साल पहले पास में खरखंड इलाके में एक बांध बनाया जा रहा था जिसके रास्ते में इस गांव के आदिवासी आ रहे थे.
सरकार ने उन्हें वहां से हटा दिया और इसके बदले में उन्हें पास में जगह दे दी.
गांव के एक आदिवासी ने कहा, “उस समय हमसे कहा गया कि ये कुछ महीनों के लिए है. हमें बाद में वादी में बसाया जाएगा. हमें बिजली और पानी की सुविधा दी जाएगी लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ.
यहां कोई नेता भी नहीं आता. हम अपना दुःख किस के सामने रोएं?”
पांच साल के इस लंबे अरसे में ऐसा लगता है कि सरकार इनके बारे में भूल गई है.
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